संचार के इस युग में नई संस्कृति का संचार हो रहा है, जहां मकबूलियत में असलियत दिख रही है ।प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्तियों के खोखले अस्तित्व की कहानियां रोज उजागर हो रही हैं । बॉलीवुड उधारी के नाम ने ही अब इसको हिला कर रख दिया, उधार की संस्कृति और नशे डूबे कितने दिग्गज ।परिवार समेत सृजन कर रहे और कितना अभिनय ये सबको दिख रहा है । अंतः वस्त्रों के विज्ञापन की धूम है और नैतिकता वाले इलायची सोडा- पानी के नाम पर जो बेच रहे उसका असर अब उनके घरों पर भी दिखने लगा है ।
राजनीति में असीमित अधिकार है तो नशा भी वैसा ही चिरस्थाई है । कहते हैं पूत कपूत तो का धन संचय, पूत – सपूत तो का धन संचय पर राजनीति इसको कहां मानती है । क- स का अंतर नेताओं को समझना ही नहीं इसलिए कस – कस के हार हो रही फिर भी प्रवृत्ति है की गलती सुधर ही नहीं रही । दिल गलती कर बैठा है पर माने कौन ? अपनी गलती को जनगलती बनाने की पूरी चेष्टा है ।
सरकारें बनती तो आम चुनाव के परिणामों से पर चलती खासो के चुनाव से हैं । हर सरकार में ये खासो कि करनी ऐसी होती है कि सरकार असर – कार ही नहीं रह पाती ।प्रदेश में भी राजनीतिक परिस्थिति ऐसी है, पंजाब जैसी समानता नहीं है , छत्तीसगढ़ पंजाब नहीं हो सकता के दावे हैं ।पर क्या ये सही है आसार और भाव – भागिमाए तो पंजाब से भी ज्यादा तल्खी का इशारा कर रही है, अब इसे स्वीकारे या ना स्वीकारे ।राजनीति में सब कुछ ढका छुपा तो रह नहीं सकता, दिखता भी सबको है सब कुछ ना सही तो कुछ-कुछ का तो अंदाजा हो ही जाता है ।छत्तीसगढ़ के नेताओं की कितनी जरूरत उ. प्र. में है और वो कितने प्रभावी होंगे वो असम चुनाव परिणाम से भी समझा जा सकता है । अब यदि दिवास्वप्न ही हकीकत हो जाए तो कहा नहीं जा सकता पर भ्रम तो व्याप्त है, ब्राह्मणों को उ.प्र. में करीब लाने की कोशिश करती कांग्रेस की कमान । किसके हाथों में रहेगी इससे भी परिणाम प्रभावित होंगे, सत्ता प्राप्ति की जगह यदि नम्बर सुधारना उद्देश्य है तो फिर कुछ भी किया जा सकता है ।
वैसे इस दुरुह्तम राजनीतिक सफर में सत्ताप्राप्ति मुश्किल ही है । पर इन परिस्थितियों में भी भ्रम व्याप्त है तो इस भ्रम की व्यापकता मूल राज्यों में भी रहेगी । पंजाब क्या छत्तीसगढ़ में भी सब कुछ गड़बड़ ही चल रहा है, पर न इससे माननीय मान रहे न नेता और न ही नेताओं के नेता हाईकमान यदि कमान ऐसा ही हाई होता रहा तो बिना तीर चले प्रत्यंचा का टूटना तय है और ऐसे में शिकारी ही शिकार होंगे या आपने ही । राजनीति की ये कौन सी दशा – दिशा है , जिसमे समस्या निदान नही ढूंढा जा रहा ।टालने से क्या समस्या का स्थाई हल निकल जाएगा । यदि नेतृत्व बदला तो सवाल और सफर दोनों नए चालू होंगे । छत्तीसगढ़ी अस्मिता का क्या होगा , बहुमत के बाद नेतृत्व परिवर्तन क्यों ? और क्या इससे सरकार की छवि इतनी बन जाएगी कि दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में पिछली जीत दोहरा ली जाएगी ।
छत्तीसगढ़ की अपनी छत्तीसगढ़ीया सरकार वाली छवि का क्या होगा ? माननीयों के एक तरफा राजनीतिक खेमेबाजी के बाद भी क्या संतुलित, गुटबाजी से परे विकासमूलक मंत्रिपरिषद का गठन हो पायेगा । नवस्थापित मंत्रियो को यदि पुराने दिग्गजों से मात मिल जाए तो क्या वे इतने ही दमखम से जीतने की राजनीति करेंगे या आपस में निपटाने वाली राजनीति की शुरुआत होगी । आदिवासी अंचलों से एक तरफ़ा जीत पिछले चुनाव में मिली थी, ऐसे में क्या इन आदिवासी अंचलों और नेताओं में सत्ता की भागीदारी में अपना हिस्सा बड़ा और बड़ी महत्ता की चाहत नहीं होगी। सरकार की नीतियों में जो परिवर्तन लाजमी है उसकी तरफ किसका ध्यान है । शराबबंदी, कर्जमाफी, में किसका असर बड़ा होगा , सलाहकारों की सलाहों पर हुई गलतियों का जिम्मेदार कौन होगा ? आपस की प्रतिस्पर्धा यदि संघर्ष में बदल जाए तो मान लेना चाहिए कि समन्वय में हुई कमी सत्ता के रास्ते रोड़े अटकायेगी अब जितनी जल्दी आप समझ जाएं, कह ले ,मान ले, सुधार ले |
सार ये है ————- दिल गलती कर बैठा है …
चोखेलाल
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मुखिया के मुखारी में व्यवस्था पर चोट करती चोखेलाल
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