‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार, जानिए क्या हैं फायदे

‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार, जानिए क्या हैं फायदे

नई दिल्ली। देश में 'वन नेशन, वन इलेक्शन'  व्यस्था लागू करने की दिखा में केंद्र सरकार ने बड़ा कदम बढ़ा दिया है। सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में कमेटी का गठन कर दिया है। 18 से 22 सिंतबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाया गया है। इस दौरान 'वन नेशन, वन इलेक्शन' बिल लाया जा सकता है।

इससे पहले 2018 में इस मुद्दे पर हलचल मची थी। तब कानून दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की बात दोहराई थी। भाजपा अध्‍यक्ष अमित शाह ने 13 अगस्त 2018 को विधि आयोग को एक पत्र लिखा था, जिसमें एक देश, एक मतदान की मांग की गई थी। शाह ने कहा था कि पूरे साल राज्यों में चुनावों के चलते, विकास कार्यों को प्रभावित किया जाता है।

भूपेंद्र यादव के नेतृत्व में बीजेपी प्रतिनिधिमंडल ने एक राष्ट्र, एक मतदान मुद्दे पर चर्चा करने के लिए कानून आयोग से मुलाकात की थी। इस प्रतिनिधिमंडल में मुख्तार अब्बास नकवी, विनय सहस्त्रबुद्धे भी शामिल थे।

तब एक देश एक चुनाव की अवधारणा को कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, वामपंथी दल, आम आदमी पार्टी ने खारिज कर दिया था। इस बारे में नीति आयोग का मानना है कि ‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार देश के फायदे में है।

'एक देश, एक चुनाव' व्यवस्था लागू करने के लिए यह करना होगा

दरअसल, एक साथ चुनाव कराने के लिए पहले कुछ विधानसभाओं के कार्यकाल में कटौती करनी होगी या कुछ के कार्यकाल में विस्तार करना होगा। नीति आयोग कह चुका था कि इसे लागू करने के लिए संविधान विशेषज्ञों, थिंक टैंक, सरकारी अधिकारियों और विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों का एक विशेष समूह गठित किया जाए।

कई जानकार मानते हैं कि यह विचार अच्छा है, मगर हमारे संविधान निर्माताओं ने अलग-अलग तरह की पद्धति की सरकारों का विस्तार से और अच्छी तरह से अध्ययन किया था। फिर अपने देश के लिए कई तरह की पार्टियों की व्यवस्था को स्वीकार किया था। यह हमारे जैसे अलग-अलग धर्मों, मान्यताओं, भाषाओं वाले देश के लिए सही व्यवस्था है और एक देश एक चुनाव एक पार्टी शासन को ओर बढ़ाने का एक कदम है।

विकास पर असर और बढ़ता चुनावी खर्च

चुनाव की तारीखें घोषित होते ही आदर्श आचार संहिता लागू कर दी जाती है। इसकी वजह से सरकारें नए विकास कार्यक्रमों की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाती हैं। इससे अस्थिरता बढ़ती है और देश का आर्थिक विकास भी प्रभावित होता है।

कई स्तरों पर सरकार की मौजूदगी के कारण देश में लगभग प्रत्येक वर्ष चुनाव कराए जाते हैं। इसमें काफी मात्रा में धन और समय दोनों की बर्बादी होती है। बताते चलें कि साल वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव पर 1,100 करोड़ रुपए खर्च हुए और वर्ष 2014 में यह खर्च बढ़कर 4,000 करोड़ रुपए हो गया।

शिक्षा काम में व्यवधान

बार-बार चुनाव कराने से शिक्षा क्षेत्र के साथ-साथ अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों के काम-काज प्रभावित होते हैं। क्योंकि चुनाव के काम में बड़ी संख्या में शिक्षकों सहित एक करोड़ से अधिक सरकारी कर्मचारियों को लगाया जाता है।

लगातार जारी चुनावी रैलियों के कारण यातायात से संबंधित समस्याएं होती हैं। साथ ही साथ मानव संसाधन की उत्पादकता में भी कमी आती है। सांसदों और विधायकों का कार्यकाल एक ही होने के कारण उनके बीच समन्वय बढ़ेगा।

इसलिए हो रहा है एक साथ चुनाव कराने का विरोध

दरअसल, संविधान में कोई प्रावधान नहीं है जो यह कहता हो कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं। हालांकि, भारत में वर्ष 1967-68 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे क्योंकि लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं का एक ही समय पर विघटित होती थीं।

चुनाव आयोग के मुताबिक एक साथ चुनाव करने के लिए संविधान संशोधन की भी आवश्यकता होगी। बार-बार होने वाले चुनाव सरकार के लिए एक नियंत्रण एवं संतुलन की व्यवस्था बनाते हैं। विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़ा जाता है, जबकि लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर। ऐसे में दोनों चुनाव एक साथ कराने पर जनता के मन में भ्रम हो सकता है। चुनावों के दौरान बड़ी संख्या में लोगों को वैकल्पिक रोजगार मिलता है, एक साथ चुनाव न कराए जाने से बेरोजगारी बढ़ेगी।

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