600 साल पुराना है बस्‍तर दशहरा का इतिहास, जानें उत्‍सव मनाने क्‍यों होता है रथ का निर्माण

600 साल पुराना है बस्‍तर दशहरा का इतिहास, जानें उत्‍सव मनाने क्‍यों होता है रथ का निर्माण

जगदलपुर : मां भारती की सेवा में पुत्र शस्त्र उठाकर सीमा पर तैनात है, तो उसकी सुरक्षा की कामना लिए एक पिता पिछले आठ वर्ष से मां दंतेश्वरी की सेवा में अस्त्र लिए रथ निर्माण करते आ रहे हैं। विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व की शुरुआत से ही रथ निर्माण का कार्य बेड़ाउमरगांव व झारउमरगांव के ग्रामीण करते आ रहे हैं। इसमें लगभग 150 लोग शामिल होते हैं।

झारउमरगांव के बलदेव बघेल भी इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं, पर इसमें परिवार की परंपरा निर्वहन के साथ पुत्र के लिए स्नेह का भाव भी है। पिता बिस्सु के बाद रथ निर्माण में सेवा देने वाले बलदेव बताते हैं कि बड़ा बेटा गजेंद्र आठ वर्ष पहले सीमा सुरक्षा बल में भर्ती हुआ। वह जम्मू-कश्मीर में तैनात है, जहां आंतकवादियों से देश की रक्षा में डटा है। तब से वे प्रतिवर्ष मां दंतेश्वरी की सेवा करते आ रहे हैं। यहां वे करीब 25 दिन तक रहेंगे और परंपरागत अस्त्र से रथ का निर्माण करेंगे। बलदेव ने बताया कि करीब 600 वर्ष से अधिक समय से उनके गांव व परिवार के लोग बस्तर दशहरे में रथ का निर्माण मां दंतेश्वरी की सेवा की भावना से यह कार्य करते आ रहे हैं। अब नई पीढ़ी के लोग भी इसमें जुड़कर पूर्वजों की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। इस बार रथ निर्माण के लिए गांव के स्नातक कर चुके युवा भी आए हुए है। रथ निर्माण परंपरागत अस्त्र से किया जाता है, जिसमें लंबा समय लगता है। करीब एक माह तक सब काम छोड़कर यहां सेवा देनी पड़ती है। इसलिए गांव के कुछ लोग इसमें अब सहभागिता निभाने नहीं आते। परंपरा को बनाए रखने अब गांव के जो परिवार इसमें सम्मिलित नहीं होते, उनसे अर्थदंड लेने की प्रथा पिछले कुछ वर्ष से शुरु हुई है। दस रुपये से शुरू हुई इस प्रथा में अब पांच सौ रुपये अर्थदंड का प्रावधान है।

इस बार 107 दिन का पर्व

बस्तर दशहरा विश्व में सबसे लंबे समय तक मनाया जाने वाला पर्व है। 75 दिन तक मनाया जाने वाला यह पर्व इस बार 107 दिन तक मनाया जाएगा। इस वर्ष 17 जुलाई को पाठ जात्रा रस्म से शुरुआत हुई। 27 सितंबर को डेरी गड़ाई रस्म के साथ रथ निर्माण शुरु हुआ।

14 अक्टूबर को काछनगादी रस्म के साथ काछनगुड़ी देवी से आशीर्वाद लेकर बस्तर दशहरे का शुभारंभ हाेगा। दशहरे तक प्रतिदिन चार चक्के वाला फूल रथ चलाया जाएगा। दशहरे पर भीतर रैनी के दिन दंतेश्वरी मंदिर से कुम्हड़ाकोट तक विजय रथ परिक्रमा होगी। इसके अगले दिन बाहर रैनी पर कुम्हड़ाकोट से दंतेश्वरी मंदिर तक रथ परिक्रमा होगी। 31 अक्टूबर को बस्तर की देवी मावली माता की विदाई के साथ बस्तर दशहरा पर्व का समापन होगा।

भारत में इकलौती जगह, जहां दशहरे में रथ चलाने की परंपरा

शिक्षाविद बीएल झा ने बताया कि बस्तर दशहरे का संबंध महाकाव्य रामायण के रावण वध से नहीं अपितु महिषासुर मर्दिनी मां दुर्गा से जुड़ा हुआ है। बस्तर दशहरे में रथ परिचालन की शुरुआत चालुक्य वंश के चौथे राजा पुरूषोत्तम देव ने की थी। जगन्नाथ पुरी के राजा ने 16 चक्कों का रथ बस्तर राजा को देने के साथ ‘लहुरी रथपति’ की उपाधि से सम्मानित किया।

राजा पुरूषोत्तमदेव बस्तर लौटे पर यहां की सड़कें इतने बड़े रथ को चलाने योग्य नहीं थे तो रथ का विभाजन कर इसके चार चक्कों को भगवान जगन्नाथ को समर्पित कर दिया। 12 पहियों का एक विशाल रथ मां दंतेश्वरी को अर्पित कर दिया था, जिसे बाद में आठ पहियों का विजय रथ व चार पहियों का फूल रथ बनवाया गया जो आज भी चलाया जाता है।

You can share this post!


Click the button below to join us / हमसे जुड़ने के लिए नीचें दिए लिंक को क्लीक करे

Comments

  • No Comments...

Leave Comments