हिंदू धर्म में बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में हर साल दशहरा पर्व मनाया जाता है। हिंदू पंचांग के मुताबिक, हर साल आश्विन मास में शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को दशहरा मनाया जाता है। परंपरा के अनुसार हम देखते हैं कि हर साल दशहरा जीतने के बाद दो पत्तियां दोस्तों, परिजनों, रिश्तेदारों को बांट कर दशहरे की शुभकामनाएं दी जाती है और बुजुर्गों से आर्शीवाद लिया जाता है। पंडित चंद्रशेखर मलतारे के मुताबिक, इस साल आश्विन महीने की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि 23 अक्टूबर को शाम 05:44 से शुरू होगी और उदय तिथि के कारण 24 अक्टूबर को दशहरा पर्व मनाया जाएगा। ऐसे में दशहरे पर बांटी जाने वाली सोना पत्ती के महत्व के बारे में यहां
विस्तार से जानें -
दशहरे पर जिन सोन पत्तियों को बांटा जाता है, इसे पौराणिक ग्रंथों में ‘शमी के पेड़ की पत्ती’ बताया गया है। रामायण में जिक्र है कि भगवान राम ने लंका विजय से पहले शमी के पेड़ की पूजा की थी। ऐसा माना जाता है कि शमी के पेड़ में भगवान कुबेर का भी वास होता है। शमी का पेड़ जीवन में सुख, समृद्धि और विजय की प्राप्ति का आशीर्वाद देता है।
ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर ने अपने ग्रंथ ‘बृहद संहिता’ में शमी के पेड़ की खासियत बताई है कि यह पेड़ उस वर्ष में ज्यादा फलता-फूलता है, जिस वर्ष सूखा पड़ने वाला होता है। ऐसे में हर किसान को अपने खेत की सीमा पर शमी का पेड़ जरूर लगाना चाहिए। यह पेड़ खेती-किसानी में मौसम विपदा के बारे में पहले ही संकेत दे देता है।
आजकल शमी के पेड़ बहुत कम देखने को मिलते हैं। इस कारण से मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ सहित कुछ अंचलों में शमी की पत्तियों के स्थान पर अस्तरे की पत्तियों को सोने के समान माना जाता है। अस्तरे की पत्तियां भी शमी के समान जुड़ी होती है। इसके अलावा चांदी के रूप में ज्वार के पौधे की पत्तियां वितरित की जाती है।
पौराणिक ग्रंथों में वास्तविक सोना पत्ती शमी के पेड़ को ही कहा गया है, लेकिन मालवांचल में ‘अस्तरा’ की पत्तियों का वितरण किया जाता है। झाबुआ जिले में इसे हेतरी या सेंदरी के नाम से जाना जाता हैं। कुछ स्थानों पर सोना पत्ती के लिए कठमुली व झिंझोरी का भी इस्तेमाल किया जाता है। संस्कृत में इसे अश्मंतक,यमलपत्रक कह कर पुकारा जाता है। वास्त में इस दौरान ऐसे पत्तों का बांटा जाता है, जिसमें दो पत्ते एक साथ जुड़े होते हैं।
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