भारत बनेगा दवाओं की दुनिया का गेम चेंजर, करोड़ों की दवा हजारों में होगी तैयार, सामने आया सरकार का प्लान

भारत बनेगा दवाओं की दुनिया का गेम चेंजर, करोड़ों की दवा हजारों में होगी तैयार, सामने आया सरकार का प्लान

नई दिल्ली: भारत को छह दुर्लभ बीमारियों की आठ दवाएं तैयार करने में सफलता मिली है। अब तक इन रोगों की सालाना दवाएं करोड़ों रुपये में आती थीं लेकिन अब चार ऐसी दवाएं देश में बननी शुरू हो गई हैं। जिसके बाद उपचार का खर्च करोड़ों से घटकर कुछ लाख रुपये ही रह गया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. मनसुख मंडाविया और नीति आयोग के सदस्य (स्वास्थ्य) डॉ. वीके पॉल ने शुक्रवार को एक संवाददाता सम्मेलन में यह जानकारी दी।

उन्होंने कहा कि सरकार ने उद्योग जगत के साथ मिलकर 13 आम प्रचलित दुर्लभ बीमारियों की दवाएं भारत में बनाने का निर्णय लिया था। अब तक छह बीमारियों की आठ दवाएं तैयार करने में सफलता मिली है। इनमें से चार दवाएं बाजार में उतार दी गई हैं। चार दवाएं तैयार हैं लेकिन वे नियामक की मंजूरी की प्रक्रिया में हैं तथा शेष बीमारियों की दवाओं को लेकर कार्य प्रगति पर है।

मंडाविया और पॉल ने बताया कि आनुवांशिक रूप से होने वाली यकृत से जुड़ी बीमारी टाइरोसिनेमिया टाइप-1 के इलाज में इस्तेमाल होने वाले कैप्सूल निटिसिनोन के जरिये एक बच्चे के उपचार का सालाना खर्च अभी 2.2 करोड़ रुपये के करीब आता है। भारतीय कंपनी जेनेरा फार्मा ने इसका जेनेरिक संस्करण तैयार किया। इससे उपचार का सालाना खर्च महज ढाई लाख रह जाएगा। इस प्रकार यह 100 गुना कम हुआ। एक अन्य कंपनी अकम्स फार्मा भी इसे तैयार कर रही है।

मेटाबॉलिज्म से जुड़े गौशर रोग की दवा एलिग्लस्टैट का निर्माण भी जनेरा फार्मा ने किया और एमएसएन फार्मा व अकम्स इसके निर्माण की प्रक्रिया में हैं। इससे दवा की कीमतें 60 गुना तक कम हुईं। इसके इलाज का सालाना खर्च 1.8-3.6 करोड़ तक रहता था वह भारतीय दवा से महज 3.6 लाख रह गया है।

दुर्लभ वंशानुगत विकार विल्सन रोग की दवा ट्रिएंटाइन को लौरुस लैब व एमएसएन फार्मा ने तैयार किया। इसे दो और कंपनिया भी बना रही हैं। मौजूदा समय में आयातित दवा से सालाना उपचार खर्च 2.2 करोड़ है। यह अब घटकर 2.2 लाख रह जाएगा।

चौथी दवा कैनबिडिओल है जो लेनोक्स गैस्टरोट सिंड्रोम के उपचार में इस्तेमाल होती है। यह मिर्गी जैसे गंभीर दौरों की बीमारी है। एक बच्चे के उपचार में अभी आयातित दवा से सालाना खर्च सात से 34 लाख तक आता था। अब देश में बनी दवा से खर्च एक से पांच लाख के बीच रहेगा।

चार दवाएं मंजूरी की प्रक्रिया में हैं और जल्द बाजार में आएंगी। इनमें फिनाइलकीटोनयूरिया रोग की दवा सैप्रोप्टेरिन, हाइपरअमोनमिया की दवाएं सोडियम फेनिलब्यूटीरेट और कारग्लूमिक एसिड तथा गौशर रोग की एक और दवा मिग्लस्टैट शामिल हैं।

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री और नीति आयोग के सदस्य ने कहा कि इन दवाओं की कम कीमत से न सिर्फ भारतीयों को फायदा होगा बल्कि विदेशों से भी इनकी मांग आने लगी है। भारत 150 से ज्यादा देशों को दवाएं निर्यात करता है। एचआईवी की सबसे सस्ती दवाएं भारत में बनती हैं। अब दुर्लभ बीमारियों की सस्ती दवाएं भी देश में बनेंगी।

सिकल सेल रोग की दवा हाइड्रोक्सीयूरिया की टेबलेट देश में बनती है लेकिन बच्चों को टेबलेट देना मुश्किल होता है। इसका सीरप काफी महंगा है और 100 एमएल की एक बोतल की कीमत करीब 70 हजार रुपये है लेकिन भारतीय दवा कंपनियों ने इसे महज 405 रुपये में तैयार करने में सफलता हासिल की है। अगले साल मार्च तक यह सीरप बाजार में उपलब्ध हो जाएगा।

एक हजार में एक से कम व्यक्ति को होने वाली बीमारी को दुर्लभ बीमारी माना जाता है। देश में कितनी दुर्लभ बीमारियां हैं, इसका कोई ठोस आंकड़ा नहीं है लेकिन देश में 8-10 करोड़ ऐसे रोगी होने का अनुमान है। 80 फीसदी दुर्लभ बीमारियां आनुवांशिक होती हैं इसलिए बच्चों में ही नजर आने लगती हैं।

यह आम बीमारियां नहीं हैं इसलिए दवा कंपनियां इन्हें कम बनाती हैं। इन्हें लेकर अभी तक जागरुकता की कमी थी और उपचार पर ध्यान नहीं दिया जाता था। सरकार दुर्लभ बीमारी की मदद के लिए साल में अधिकतम 50 लाख रुपये तक की मदद प्रदान करती है।

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