"गुरु परम्परा" अति प्राचीन है , यह *भगवान नारायण* से प्रारंभ होकर शिष्य - प्रशिष्य प्रणाली द्वारा आज तक संचालित हो रही है । यथा नारायण - वशिष्ठ - शक्ति - पाराशर - व्यास - शुकदेव - गौडपाद - गोविंद पाद - श्री शंकराचार्य जी एवम् उसके बाद हम - आप सब तक यह परम विशुद्ध गुरु परम्परा चली आ रही है । हम - आप सभी आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन को गुरु पूजा के रूप में मनाते है ।
गुरु पूजन में शिष्य द्वारा गुरुदेव को भगवान स्वरूप स्वीकार करते हुए गुरु चरणों का जल , दूध , धी , दही , शहद , शक्कर पंचामृत से अभिषेक पूजन करता है , वस्त्र अलंकारों से , पुष्प माला पहनाकर , श्रीफल , मिष्ठान्न भेंटकर , समर्पण स्वरूप अपनी श्रद्धा एवम् भक्ति के अनुरूप मुद्रा राशि अर्पित करता है। इसके पश्चात अभिषेक पूजन का चरणामृत ( पादोदक ) को ग्रहण करके अपने आपको धन्य मानता है ।
पाद प्रक्षालन की गरिमामय महिमा का विवेचन श्री मत स्वामी विद्यारण्य जी ने वेदांत ग्रंथ *पंचदशी* में करते हुए लिखा है कि मै अपने गुरुदेव भगवान श्री शंकरानन्द जी का पूजन एवम् पाद प्रक्षालन इसलिए करता हूं कि जिस प्रकार महाजल राशि सागर में मगर अनेक जीवो मछली , मेंढक आदि का भक्षण कर लेता है । ठीक उसी प्रकार इस भवसागर में गुरुदेव का चरण रूपी मगर , हम शिष्यों के द्वारा पाद संस्पर्श करते ही वह समस्त पाप - ताप - संताप को भक्षण कर लेते हैं । तदनंतर शिष्य पाप मुक्त होकर भगवत साक्षात्कार का अधिकारी बन जाता है ।
गुरु चरण व प्रभु चरण सदा पापों का ही भक्षण करते हैं , श्री राम के चरण ने शाप से शापित अहिल्या के पापों का भक्षण कर उसे निष्पाप बना दिया , निष्पाप होते ही शीला से वह सजीव नारी बन गई । श्री राम वन गमन के समय भरत जी ने 14 वर्ष तक राम चरण पादुका का ही आश्रय लिया और पादुका के आदेश से राज्य संचालित किया । श्री हनुमंत लाल जी सदा राम चरण में बैठते हैं वह स्वयं कह रहे हैं कि
*श्री गुरु चरण सरोज रज ,*
*निज मन मुकुर सुधार*
श्री गुरुदेव चरण रज से अपने मन रूपी मुकुट शीश को शुद्ध कर सकते हैं । गुरु सदा अपने शिष्य का उत्कर्ष चाहता है । क्योंकि शिष्य गुरु की आत्मा ही होता है , *गुरु गीता* में लिखा है कि "आत्मा गुरुरेव " अतः गुरुदेव सतत शिष्य के गुण दोषों का क्षमता पूर्वक निरीक्षण करे और हृदय में प्यार दया की भावना रखते हुए उन दोषों का निराकरण करने के लिए त्रास एवं दंड प्रक्रिया को अपनाते हुए उसकी रक्षा करें । जैसे कुम्हार घड़े के निर्माण में दया और प्रताड़ना दोनों का प्रयोग करता है । तभी घड़ा वृद्धि को प्राप्त कर पाता है ।
यथा
*गुरु कुमार चेला घड़ा , गड़ गड़ काडे खोट* ।
*अंदर हाथ सहाय के , बाहर मारे चोट* ।।
जीवन की हर चर्या में गुरु होना चाहिए , जागने से सोने तक , जन्म से मृत्यु तक , बल्कि मरण का बाद भी गुरु का होना आवश्यक है । क्योंकि पुनः मरण ना हो । मरण में ही जीवन का अंत ना मान लिया जाए , मरने के आगे भी कुछ है वह है ना मरना । आवागमन के चक्कर से छूटना , परम गति , सद्गति को पाना यह बिना गुरु के संभव नहीं है ।
उत्कृष्ट जिज्ञासु तृष्णा शून्य शिष्य को गुरु परम तत्व से जोड़ देते हैं , जिसके बाद पुनरावर्तन नहीं होता । इसी श्रंखला में सुखदेव जी ने परीक्षित को बोध कराया , बोध होने के उपरांत परीक्षित ने कहा " मै बंधन मोक्ष से परे परम तत्व हूं "। जहां मृत्यु का भय नहीं है । अर्जुन ने भी कहा मेरा मोह नष्ट हो गया , अब मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया है । जनक जी ने कहा कृपालु गुरुदेव आपकी कृपा से ही मेरा ज्ञान दूर हो गया । गुरु को पाकर ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और भवसागर से पार हो जाते हैं ।
जसे फटे वस्त्र को सुई धागा जोड़कर एक कर देता है , ऐसे ही गुरुदेव भगवान जीव और ब्रह्म दोनों को अपने आत्मबोध के द्वारा जीवन का बोध करा देते हैं , तब जीव कहता है । जीव ब्रह्म से परे नहीं है , वह ब्रह्म स्वरूप ही है ।
गुरु पूर्णिमा महापर्व के अवसर पर समस्त देशवासियों , शिष्यों एवं भक्तों को मेरा हार्दिक शुभ आशीर्वाद । सभी सर्वतोमुखी प्रगति को प्राप्त करें , इसी कामना के साथ समस्त देशवासियों , सनातन संस्कृति से जुड़े भक्तों एवम शिष्यों को बहुत-बहुत शुभ आशीर्वाद । आप सभी के परिवार की सुख , शांति एवं समृद्धि की कामना करता हूं
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