देश में चुनाव अनवरत जारी रहते हैं, ऐसे में मतदाताओं को लुभाने के तमाम हथकंडे अपनाएं जाते हैं । सत्ता प्राप्ति के लिए यदि ये विशुद्ध राजनीतिक हथकंडे होते तो देश के भविष्य को नुकसान ना होता पर सत्ता की सर्वोपरिता जन सेवा से जब से स्वसेवा का माध्यम बन गया है, तब से इसमें धर्म और जाति का तड़का मिलकर नित नये विघटन कार्य जतन किए जा रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों के उदय में उन अंग्रेजों का हाथ था जिन्होंने 200 वर्षों तक हमें गुलाम बनाए रखा ,कांग्रेस के अभ्युदय के साथ उसके शैशव काल में ही मुस्लिम लीग की स्थापना हो गई। दो राष्ट्र की मांग धर्म के आधार पर होने लगी और अंततः देश का विभाजन हो गया, ये इस बात का प्रमाण है कि राजनीतिज्ञों का सत्ता का क्षुद्र स्वार्थ एकता के विघटन को रोकने में असमर्थ है और न ऐसी कोई उनकी इच्छा शक्ति है यदि हम इतिहास का पुनरावलोकन करने में समर्थ होते तो आज की राजनीतिक परिस्थितियों का सामना नहीं कर रहे होते विज्ञान का सिद्धांत है की हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, भारतीय संविधान कहता है कि वों समदर्शी है पर सत्ता लोलुपता ने कभी ऐसा होने नहीं दिया जब देश का धर्म के आधार पर विभाजन हुआ तो मुस्लिम आबादी करीब 22% थी।पाकिस्तान बनाया ही धर्म के आधार पर था 22% आबादी में से आधी आबादी पाकिस्तान गई ही नहीं वास्तविकता ये थी कि 22% की जगह 11% को ही 33% भू-भाग दे दिया गया । जैसे हमने भगत सिंह जैसे कई क्रांतिकारियों के फांसी का विरोध नहीं किया वैसे ही इसका भी विरोध नहीं किया राजनीतिज्ञों ने सत्ता पे अधिकार पाने के लिए देश के अधिकारों के साथ समझौता कर लिया इन्हें अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा इतनी महत्वपूर्ण लगी कि वों आज भी अपने अलावा क्रांतिकारियों के संघर्ष को याद नहीं करना चाहते और नहीं देश के बंटवारे की कोई जवाबदेही लेते हैं।
1947 की परिस्थितियों जैसा माहौल फिर बनाया जा रहा है इन 78 वर्षों में देश की साक्षरता जरूर बढ़ गई पर समझ नहीं बढ़ पाई । यदि संविधान सबको एक नजर से देखा है धर्मनिरपेक्ष है तो फिर इस देश में एक धर्म विशेष को विशेष सुविधाएं क्यों? मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ,हज सब्सिडी ,वक्फ बोर्ड यदि ये अल्पसंख्यक हितों की रक्षा करने के लिए अति आवश्यक है तो फिर ऐसी कोई संस्थाएं सिक्ख, जैन, बौद्ध और पारसियों के लिए क्यों नहीं बनाई गई? क्यों बहुसंख्यकों के लिए ऐसी कोई सुविधा नहीं? इसी विषमता ने उन धर्म गुरुओं को अतिप्रोत्साहित किया कि वों संविधान से ऊपर सरिया को स्थापित करने की कोशिशे करते रहते हैं। 20% वोटो की लालसा में कई राजनीतिक पार्टियां उनको और उनकी नाजायज मांगों को मानती है । इस देश में करीब 30% मतदाता तो मत डालने ही नहीं जाते, इनकी उदासीनता क्या देश प्रेम है? एकमुश्त 20% वोटो की चाहत कैसे किसी को निरपेक्ष रहने दे सकती है? सो राजनीतिक दल तुष्टीकरण के दलदल में धस्ती जा रही है ।देश के पहले ही शिक्षा मंत्री मौलाना थे फिर अब कैसे ये अपेक्षा करते हैं कि साधु, संत या कोई धर्म गुरु राजनीति न करें? और क्यों ना करें? विगत लोकसभा चुनाव में इंदौर लोकसभा का कांग्रेस प्रत्याशी चुनाव मैदान से हट गया तो नोटा को वहां रिकॉर्ड मत मिले क्या ये लोकतांत्रिक परंपरा और मर्यादाओं के अनुरूप था या फिर चिढ़कर किया गया मतदान था।
हरियाणा के विधानसभा चुनाव के परिणामों में कांग्रेस और भाजपा के बीच मत प्रतिशत का अंतर 1% से भी काम था फिर भी भाजपा सत्तारूढ़ हो गई हरियाणा के मुस्लिम बाहुल क्षेत्र में मुस्लिम उम्मीदवारों को मुस्लिम मतदाताओं ने एक तरफा वोट दिया। देश के किसी भी मुस्लिम बाहुल निर्वाचन क्षेत्र की चुनावी प्रक्रिया को आप विश्लेषित करें तो एक ही बात समझ में आती है गोलबंदी धर्म की नाम पर शैने शैने मौलानाओं ने अपने फतवों और कट्टरपंथी विचारधारा से वोट जिहाद तब्दील कर दिया, चाहे वों घुसपैठियों का मसला हो या फिलिस्तीन का या फिर शाहीन बाग का विरोध प्रदर्शन ,हर जगह राष्ट्र से ऊपर धर्म दिखता है ऐसा क्यों? क्या ये राष्ट्र प्रेम है? या ऐसी भावनाएं राष्ट्र को मजबूत करेंगी ? आसन्न झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के लिए 20% मतों की गोलबंदी के लिए जो प्रयास किया जा रहे हैं वों क्या धार्मिक समरसता को तोड़ नहीं रहे? मत तो मत है फिर कोई तोला और कोई मासा कैसे हो गया क्या हम स्वतंत्रता के शताब्दी मानने से पहले ये कर पाएंगे की संविधान सबको समानता का अधिकार देता है और उस सामानता के अधिकार का सम्मान बचा पाएंगे या फिर-----------------------------------चुनावों में यही एकतरफा प्रेम जारी रहेगा?
चोखेलाल
आपसे आग्रह :
कृपया चोखेलाल की टिप्पणियों पर नियमित रूप से अपनी राय व सुझाव इस नंबर 6267411232 पर दें, ताकि इसे बेहतर बनाया जा सके।
मुखिया के मुखारी में व्यवस्था पर चोट करती चोखेलाल
Comments