सनातन संस्कृति में अक्सर इस बात को देखा गया है कि गोत्र प्रथा को लेकर लोग विवाह से पहले जांच पड़ताल जरूर कर लेते हैं, ताकि वैवाहिक शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाए. हिंदू समाज में गोत्र प्रथा एक पुरानी परंपरा है, जिसके अनुसार एक ही गोत्र में शादी नहीं की जाती. यह प्रथा आज भी समाज में मौजूद है, लेकिन इसके पीछे का कारण समय के साथ बदलते गए हैं. आइए जानते हैं कि इस प्रथा के पौराणिक और वैज्ञानिक पहलु क्या हैं।
क्या है गोत्र प्रथा
ज्योतिष गिरिधर झा बताते हैं कि पौराणिक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो गोत्र प्रथा का उद्देश्य वंश की शुद्धता बनाए रखना था. प्राचीन काल में वंश और परिवार की प्रतिष्ठा बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती थी. गोत्र प्रथा के जरिए यह सुनिश्चित किया गया कि वंश की शुद्धता बनाए रखने के लिए संगोत्री यानि एक गोत्र में विवाह ना हो, क्योंकि आपसी संबंध के हिसाब से इन्हें एक ही ऋषि मुनि का संतान माना जाता रहा है. ऐसे में भाई और बहन के रिश्ते के बीच परिणय सम्बन्ध को प्राथमिकता नहीं दी गई. पौराणिक कथाओं के अनुसार, प्रत्येक गोत्र का संबंध किसी महान ऋषि से होता है.
क्या है वैज्ञानिक मान्यता
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, गोत्र प्रथा का महत्व जीव विज्ञान से जुड़ा हुआ है. जब दो लोग एक ही गोत्र से होते हैं, तो उनके बच्चों में जेनेटिक विकारों का खतरा बढ़ सकता है. इसका कारण यह है कि एक ही गोत्र के व्यक्तियों में जीन समान हो सकते हैं, जिससे कुछ आनुवंशिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं. वैज्ञानिकों के अनुसार, अलग-अलग जीन वाले व्यक्तियों के बीच विवाह से जेनेटिक विविधता बढ़ती है और संतान के स्वास्थ्य पर सकारात्मक असर पड़ता है।
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से भी गोत्र प्रथा का एक महत्व है. प्राचीन भारतीय समाज में गोत्र प्रथा ने सामाजिक व्यवस्था को स्थिर रखने में मदद की. इस प्रथा के माध्यम से लोग अपने समाज और समुदाय में विवाह करते थे, जिससे समाज में जातिवाद और वर्ग व्यवस्था को बनाए रखने में मदद मिलती थी. यह एक तरह से सामाजिक संतुलन बनाए रखने का साधन था।
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