ख़बर की खोज ने बना दिया संन्यासी,जानें क्या है पूरी कहानी

ख़बर की खोज ने बना दिया संन्यासी,जानें क्या है पूरी कहानी

  प्रश्नाकुल लोग ही परिवर्तन लाते हैं और ऐसे ही लोगों ने देश को स्वतंत्र कराया था। जहां प्रश्न कम पड़ जाते हैं या जहां प्रश्नों के लिए जगह कम पड़ने लगती है, वहां पाखंडियों-डोंगियों की तादाद बढ़ जाती है। वैसे कोई ऐसा क्षेत्र नहीं, जहां पाखंड न हो। चाहे राजनीति हो या धर्म क्षेत्र, ज्यादातर लोग ठगे जाते हैं और कुछ ही लोगों को ईमानदारी नसीब होती है। नतीजा यह कि समाज में अविश्वास हर जगह व्याप्त है।

ज्यादातर लोगों को यह शंका सताती है कि कहीं वे भी ठगी के शिकार न हो जाएं। केरल में जन्म लेने वाले और दिल्ली में पत्रकारिता कर जीवन-यापन कर रहे उन स्वतंत्रता सेनानी पत्रकार को भी ऐसा ही लगता था। उनका प्रश्नाकुल मन हर चीज को तर्क की कसौटी पर कसकर देखता था। वैसे भी, पत्रकार का काम ही है, किसी भी झांसेबाजी की गिरह खोलकर जगजाहिर कर देना।

ये सवाल लेकर ऋषिकेश पहुंचे थे बालाकृष्ण

मन में धार्मिक संस्कार थे, लेकिन उन पर प्रश्नों का अंबार लदा था। मन हुआ कि धर्म को तर्क के तराजू पर चढ़ाया जाए। क्या धर्म को मानने में सार है? क्या फिजूल ही साधु-संत आडंबर किए रहते हैं? पत्रकार महोदय को लगा कि साधुओं पर अच्छी खबर लिखी जा सकती है, तो वह पहुंच गए नेताओं के कर्मक्षेत्र दिल्ली से साधुओं के कर्मक्षेत्र ऋषिकेश। लोग ज्ञान हासिल करने ऋषिकेश जाते हैं, पर खांटी पत्रकार के मन में ज्ञान हासिल करने की सोच का नामोनिशान न था। उन्हें तो पाखंड के खिलाफ एक बढ़िया खबर लिखनी थी और यह जानना जरूरी था कि भगवाधारी कैसे और कितना झूठ बोलते हैं?

शिवानंद स्वामी के आश्रम पहुंचे मेनन

गर्मियों के दिन थे। उसी साल दो महीने बाद देश आजाद होने वाला था। तब ऋषिकेश में गंगा जी बहुत वेग से बहती थीं। बस से उतरकर पत्रकार महोदय डिवाइन लाइफ सोसाइटी की ओर पैदल चल पड़े थे। जब वहां पहुंचे, तब आश्रम के प्रमुख स्वामी शिवानंद प्रसन्न मुद्रा में ध्यान मग्न थे। न सिर पर कोई श्रृंगार, न शरीर पर कोई आडंबर। कुछ देर में स्वामी जी ने नेत्र खोलकर पत्रकार का स्वागत किया। पत्रकार ने बताया कि मैं बालाकृष्ण मेनन समाचार पत्र नेशनल हेराल्ड के लिए काम करता हूं। मैं आपके पास अध्यात्म और धर्म का सार समझने आया हूं।

पहली मुलाकात में बढ़ी आध्यात्मिक भूख

स्वामी जी बहुत शांत भाव से समझाने लगे। वैसे भी सच्चा साधु सामने वाले के संशय को सहज ही पढ़ लेता है और तत्काल कोशिश में जुट जाता है कि जल्द से जल्द उसका संशय दूर हो। बालाकृष्ण के गंभीर प्रश्नों को सुनकर ही स्वामी शिवानंद ने कहा, तुम अपना समय व्यर्थ न गंवाओ, यहीं आश्रम आ जाओ, साधु बन जाओ। पहली ही मुलाकात ने बालाकृष्ण मेनन की आध्यात्मिक भूख को बढ़ा दिया। उन्हें लग गया कि किसी खबर तक पहुंचने से पहले काफी कुछ समझने की जरूरत है।

बालाकृष्ण आश्रम में ही ठहर गए, आए थे सप्ताह भर के लिए, पूरा महीना बीतने को आ गया। मन ही नहीं भर रहा था। आश्रम में नाना प्रकार की यौगिक, बौद्धिक गतिविधियां चल रही थीं। एक भी सदस्य खाली नहीं नजर आता था। नकारात्मक खबर की खोज थी, पर केवल सकारात्मक पहलू परत-दर-परत खुलते चले जा रहे थे। बालाकृष्ण के जीवन में क्रांति घटित होने लगी थी। कमियां खोजने के क्रम में धर्म को उन्होंने ध्यान से समझने की ईमानदार कोशिश की। तब बचपन की पुरानी यादें उमड़ आईं।

अपने होठों पर मंत्र रखकर सो जाने की खुशी ताजा हो गई। ध्यान आया कि दादी मां ने कैसे अपने आखिरी साल को श्रीकृष्ण नाम जाप के लिए समर्पित कर दिया था। गजब हो गया। 31 साल की उम्र में वह एक संशयवादी से धर्म-उत्साही व्यक्ति बन गए और अंततः मन में भाव आया कि क्यों न सब त्यागकर संन्यासी बन जाएं। स्वामी जी बार-बार समझाते थे कि अच्छा बनो, अच्छा करो, सेवा करो, प्रेम करो, शुद्ध रहो, ध्यान करो, अनुभव करो और मुक्त हो जाओ।

ख़बर की खोज ने बना दिया संन्यासी

एक खबर की खोज का असर ऐसा हुआ कि बमुश्किल डेढ़ वर्ष के अंदर ही बालाकृष्ण मेनन ने संन्यास लेने का फैसला कर लिया। स्वामी शिवानंद ने उन्हें नया नाम दिया-चिन्मयानंद-अर्थात शुद्ध चेतना का आनंद। पत्रकारिता छूट गई, कमाई बंद हो गई। मांगकर खाने वाले साधु के रूप में भी चिन्मयानंद सरस्वती (1916-1993) ने काफी समय बिताया।

एक दिन ऐसा भी आया, जब उनके चिन्मय मिशन के दुनिया भर में सौ से ज्यादा आश्रम, केंद्र और स्कूल खुले। जिन साधुओं की पोल खोलने वह चले थे, उन्हीं की जमात में शामिल हो गए। देश में रहे या विदेश, निरंतर अध्ययन-प्रवचन में लगे रहे। वह कहते थे, ‘जब मैं आराम करता हूं, तो मुझे जंग लग जाता है।’ वह यह भी कहते थे, ‘वेदांत का अध्ययन जरूरी है, वेदांत बेहतर हिंदू, ईसाई, मुस्लिम बनाता है, क्योंकि यह बेहतर इंसान बनाता है।’






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