विक्की कौशल के अभिनय वाली फिल्म छावा की खूब चर्चा हो रही है. यह ऐसे वीर योद्धा की कहानी है, जिसने केवल 22 साल की उम्र में अपना पहला और 32 की उम्र में जीवन का आखिरी युद्ध लड़ा था. इतने छोटे समय में कुल 120 युद्ध लड़े और जीते भी. मुगल शासक औरंगजेब तो उनसे जीतने का सपना ही देखता रह गया था. यह कहानी है मराठा साम्राज्य के मुखिया छत्रपति शिवाजी महाराज के बेटे छत्रपति संभाजी महाराज की, जिन्हें शिवाजी प्यार से छावा कहते थे. आइए जान लेते हैं क्या है औरंगजेब और संभाजी महाराज की जंग और दुश्मनी की कहानी?
14 मई 1657 को छत्रपति शिवाजी के बड़े बेटे संभाजी राजे का जन्म महाराष्ट्र के पुणे से लगभग 50 किलोमीटर दूर पुरंदर के किले में हुआ था. वह शिवाजी महाराज के सबसे बड़े बेटे थे. केवल दो साल के थे, तभी उनकी मां का निधन हो गया था. इसलिए उनका पालन-पोषणा शिवाजी महाराज की माता जीजाबाई ने किया था. संभाजी महाराज को छत्रपति शिवाजी महाराज प्यार से छावा बुलाते थे, जिसका अर्थ होता है शेर का बच्चा.
22 साल की उम्र में संभाला था सिंहासन
छत्रपति शिवाजी महाराज के 3 अप्रैल 1680 को निधन के बाद उनके उत्तराधिकार को लेकर संशय खड़ा हो गया था, क्योंकि उन्होंने कोई वसीयत नहीं छोड़ी थी. संभाजी तब छत्रपति से नाराजगी के चलते उनके पास नहीं थे और उनकी सौतेली मां सोयराबाई अपने बेटे राजाराम को उत्तराधिकारी बनाना चाहती थीं. 21 अप्रैल 1680 को उन्होंने ऐसा कर भी दिया. हालांकि, संभाजी महाराज को इसकी जानकारी मिल गई तो 22 साल के संभाजी ने एक-एक कर मराठा साम्राज्य के किलों पर अपना अधिकार किया और अंतत: 20 जुलाई 1680 को छत्रपति के रूप में सिंहासन संभाल लिया. तब राजाराम की उम्र केवल 10 साल थी. संभाजी ने राजाराम, उनकी पत्नी जानकी बाई और राजाराम की मां सोयराबाई को कैद में डाल दिया.
पिता की तरह मुगलों के सामने अड़े
संभाजी महाराज छत्रपति बने तो अपने पिता शिवाजी महाराज की तरह ही मुगलों से जंग जारी रखी. साल 1682 में औरंगजेब तेजी से दक्खन (दक्षिण) पर कब्जा करने के लिए बढ़ा और मराठा साम्राज्य को चारों ओर से घेरने की तैयारी कर ली पर संभाजी के सामने एक न चली. गुरिल्ला युद्ध से संभाजी ने अपने से कई गुना बड़ी मुगल सेना को कई बार हराया. मुगल एक के बाद एक हमले करते रहे पर साल 1685 तक मराठा साम्राज्य का कोई हिस्सा हासिल नहीं कर पाए. फिर भी औरंगजेब की कोशिशें जारी रहीं.
सेनापति की वीरगति से सेना पड़ी कमजोर
यह साल 1687 की बात है. मुगलों ने एक जोरदार हमला किया तो मराठा सेना ने करार जवाब दिया. हालांकि, इस युद्ध में संभाजी के सबसे विश्वासपात्र सेनापति हंबीरराव मोहिते शहीद हो गए. इससे मराठा सेना खुद को काफी कमजोर महसूस करने लगी.
इसके बीच मराठा साम्राज्य के भीतर ही संभाजी के शत्रुओं ने उनके खिलाफ साजिश रचनी शुरू कर दी. यहां तक कि उनकी जासूसी करने लगे. साल 1689 में मराठों की एक बैठक में संभाजी संगमेश्वर गए तो मुगलों की सेना ने घात लगाकर उन पर हमला कर दिया. इस हमले के पीछे मराठा साम्राज्य के विश्वासघातियों का बड़ा हाथ था. उन्होंने इसमें मुगलों का साथ दिया, जिससे संभाजी महाराज पकड़ लिए गए.
घूरने पर औरंगजेब ने निकाल ली थीं आंखें
इस हमले में संभाजी के पकड़े जाने के बाद मुगल उन्हें बहादुरगढ़ ले गए. औरंगजेब ने संभाजी से इस्लाम कबूल करने को कहा तो संभाजी नहीं माने. इस पर उनके हाथ और गर्दन को लकड़ी के तख्ते में फंसा कर बेड़ियों में रखा जाने लगा. इसी बीच एक मौके पर औरंगजेब ने संभाजी से नजरें नीची करने के लिए कहा तो संभाजी ने लगातार उसको घूरना शुरू कर दिया तो औरंगजेब ने उनकी आंखें निकलवा दीं.
इतिहासकार डेनिस किंकेड ने लिखा है कि संभाजी ने बार-बार इस्लाम कबूल करने प्रस्ताव नहीं माना तो औरंगजेब ने उनकी जुबान निकलवा ली. साथ ही उन पर और भी यातनाएं की जाने लगीं. एक-एक कर उनके सभी अंग काट दिए और आखिर में 11 मार्च 1689 को धड़ से सिर जुदा कर उनकी हत्या कर दी. तब संभाजी की उम्र केवल 32 साल थी.
दहशत फैलाने के लिए कटा सिर घुमाया
औरंगजेब ने संभाजी महाराज की हत्या के बहाने मराठा साम्राज्य में अपनी दहशत बनाने की कोशिश की और संभाजी का सिर कई दक्षिणी शहरों में घुमाया. इससे डरने के बजाय मराठा और भड़क गए और मराठा साम्राज्य के सभी शासक एकजुट हो गए. इससे औरंगजेब की चाल उलटी पड़ गई और मराठा साम्राज्य पर कब्जे का सपना पूरा नहीं हो पाया. इतिहासकार बताते हैं कि इतनी सारी क्रूरता के बावजूद औरंगजेब को भी छावा की मौत का अफसोस था. वह खुद संभाजी महाराज का कायल हो गया था और उन्हीं के जैसा बेटा चाहता था.
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