बिहार की राजनीति हमेशा से दिलचस्पी पैदा करने वाली रही है। फिर चाहे वह आजादी के बाद राज्य में कांग्रेस की सरकार का शासन हो या फिर जनता दल के बढ़ते वर्चस्व की कहानी और या फिर लालू प्रसाद यादव और इसके बाद नीतीश कुमार के राजनीतिक पटल पर छा जाने की दास्तां।
बिहार हमेशा से राजनीतिक हलचल का केंद्र रहा है। यह हलचल राज्य में उस दौरान भी दिखी, जब आजादी के बाद कांग्रेस की सरकार बनी थी। इतना ही नहीं जब 1967 में पहली बार कांग्रेस की सरकार गिरी तो राज्य की राजनीति इतनी दिलचस्प हो गई कि अगले 10 साल तक कोई मुख्यमंत्री तीन साल भी शासन पूरा नहीं कर पाया। इनमें कोई नेता सिर्फ 16 विधायकों के साथ मुख्यमंत्री बन गया, तो कोई महज 4 दिन ही सीएम रह पाया।
ऐसे में बिहार की राजनीति के उस दौर के बारे में जानना काफी अहम है। 1946 यानी आजादी के पहले अंतरिम मुख्यमंत्री बनाए गए श्री कृष्ण सिन्हा के 15 साल बिहार के मुख्यमंत्री बने रहने के बाद कैसे कांग्रेस ने महज छह साल में तीन मुख्यमंत्री बदल दिए? 1967 में कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद आखिर क्यों 16 विधायक वाले एक नेता को बिहार का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिल गया? इसके अलावा कौन से नेता महज 50 दिन के लिए ही बिहार के सीएम रह पाए? क्यों 1967 से लेकर 1971 तक राज्य में तीन बार राष्ट्रपति शासन लगाने की नौबत आ गई? आइये जानते हैं...
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पहले जानें- बिहार में कैसे कांग्रेस ने बनाए रखी सरकार?
बिहार में पहली सरकार 1946 में श्री कृष्ण सिन्हा के नेतृत्व में बनी थी। चूंकि वह बिना चुनाव के ही मुख्यमंत्री बन गए थे। इसलिए कांग्रेस ने 1952 में उनके नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने का फैसला किया। इसके बाद सिन्हा 1961 में अपने निधन तक राज्य के मुख्यमंत्री पद पर रहे। हालांकि, बताया जाता है कि कृष्ण सिन्हा के नेतृत्व में कांग्रेस में आंतरिक राजनीति लगातार जारी रही। खासकर जातीय स्तर पर। यह सियासत सिन्हा के निधन के बाद और खुलकर सामने आ गई। दरअसल, तब ब्राह्मण वर्ग से आने वाले बिनोदानंद झा, कायस्थ समाज से आने वाले केबी सहाय और भूमिहार एमपी सिन्हा के बीच सीएम पद के लिए जंग छिड़ गई। इससे कांग्रेस को भारी घाटा हुआ और इसमें कई धड़े बन गए।
यहीं से शुरुआत हुई कांग्रेस के राज्य में कमजोर होने और एक के बाद एक मुख्यमंत्रियों के बदलने की। दरअसल, बिहार में पहले कांग्रेस ने श्री कृष्ण सिन्हा की जगह लेने के लिए दीप नारायण सिंह का नाम तय किया। हालांकि, पार्टी में बढ़ती आंतरिक कलह की वजह से दीप नारायण महज 17 दिन बाद ही सीएम पद से हट गए। कांग्रेस में बीएन झा के धड़े की जीत हुई और 1961 में उन्होंने सीएम पद की शपथ ली। हालांकि, महज ढाई साल में ही झा को भी सीएम पद छोड़ना पड़ा और आलाकमान ने कायस्थ नेता कृष्ण बल्लभ सहाय को सीएम बना दिया। सहाय ने इसके बाद पार्टी के बचे हुए कार्यकाल तक मुख्यमंत्री पद संभाला।
कांग्रेस सरकार से हटी और शुरू हुआ बिहार में उठापटक का दौर
1967 में कांग्रेस की हार के बाद राज्य के मुख्यमंत्री बने महामाया प्रसाद सिन्हा। महामाया प्रसाद खुद कायस्थ समुदाय से आते थे और एक जमाने में बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा से विवाद के चलते कांग्रेस छोड़ चुके थे। उन्होंने अपनी खुद की एक पार्टी बनाई थी- जन क्रांति दल। उनके मुख्यमंत्री बनने की कहानी कांग्रेस नेताओं के सीएम बनने से कहीं ज्यादा दिलचस्प है। दरअसल, 1967 के चुनाव में महामाया प्रसाद ने सीधा मुख्यमंत्री केबी सहाय को पटना पश्चिम सीट से चुनौती दे दी थी। चौंकाने वाली बात यह है कि महामाया प्रसाद ने सीएम सहाय को इस चुनाव में बुरी तरह हरा दिया।
यह चुनाव कांग्रेस के लिए भी कांटोभरा साबित हुआ। दरअसल, बिहार विधानसभा की 318 सीटों में कांग्रेस को महज 128 सीटें मिलीं। वहीं, राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में विपक्षी दलों के गठबंधन ने बहुमत हासिल कर लिया। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) को 68 सीट पर जीत मिली। इसके अलावा जनसंघ को 26, भाकपा को 24 और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) को 18 सीटें मिली। महामाया प्रसाद की एसएसपी ने इस चुनाव में 13 सीटें जीतीं और इसके साथ ही बिहार में कांग्रेस को सरकार से हटाने के लिए साथ आया संयुक्त विधायक दल।
हालांकि, इस गठबंधन में भी मुख्यमंत्री के चेहरे पर सहमति नहीं बन पा रही थी। बताया जाता है कि एसएसपी के सबसे बड़ी पार्टी होने की वजह से इसके नेता कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने की सबसे ज्यादा चर्चाएं थीं। लेकिन, गठबंधन के साथी दलों को उनका नाम स्वीकार नहीं था। ऐसे में बीच का रास्ता निकालते हुए महामाया प्रसाद सिन्हा को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने का फैसला हुआ। वहीं, कर्पूरी ठाकुर को उपमुख्यमंत्री पद सौंपा गया।
हालांकि, 1967 में बना यह गठबंधन महज एक साल से कुछ ज्यादा ही चल पाया। दरअसल, जनसंघ और भाकपा की विचारधारा में टकराव लगातार जारी रहा। दूसरी तरफ महामाया प्रसाद सिन्हा के कैबिनेट में सभी जातियों को बराबर प्रतिनिधित्व न देने का मुद्दा भी लगातार उठता रहा। इसके चलते पहले 10 महीने में बिहार में मंत्रिमंडल का पांच बार विस्तार हुआ। हालांकि, जनवरी 1968 में यह सरकार भी गिर गई।
1968: जब 'मंडल कमीशन' वाले बीपी मंडल की बगावत से गिरी महामाया सरकार
महामाया प्रसाद के मुख्यमंत्री पद से हटने की एक बड़ी वजह थे सतीश प्रसाद सिंह, जो कि बिहार में अंतरिम मुख्यमंत्री बने। दरअसल, सतीश प्रसाद पहली बार परबत्ता से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। कुछ नियुक्तियों को लेकर उनकी सीएम महामाया प्रसाद से कहासुनी हो गई। जब इसकी खबर कांग्रेस को लगी तो महामाया प्रसाद से चुनाव में मात खाए केबी सहाय ने सतीश प्रसाद से संपर्क किया। आगे का घटनाक्रम कुछ ऐसा हुआ कि सतीश प्रसाद सिंह को यादव समाज के प्रमुख नेता बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल का समर्थन मिला, जिन्होंने कैबिनेट में जातीय व्यवस्था से नाराज होकर बगावत कर दी।
बताया जाता है कि इन नेताओं ने 20-30 नेताओं को तोड़ लिया था और अपनी एक अलग पार्टी- शोषित दल बना लिया। इसके बाद कांग्रेस ने विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया, जिसमें महामाया प्रसाद सिन्हा गठबंधन को साथ नहीं रख पाए और सरकार भी नहीं बचा पाए।
फिर आए बिहार में चार दिन के मुख्यमंत्री
पहली सरकार के गिरने के बाद बिहार में कांग्रेस के समर्थन से शोषित दल के सतीश प्रसाद सिंह ने ही अंतरिम मुख्यमंत्री के तौर पर जिम्मेदारी संभाली। 28 जनवरी 1968 की शाम उन्होंने शपथ ली। 30 जनवरी को उनके साथ शोषित दल के दो और मंत्रियों को शपथ ली। इसी के साथ शोषित दल ने अपनी पूर्ण सरकार बनाने की कोशिश शुरू कर दी। इस राह में सबसे बड़ा रोड़ा था शोषित दल के नेता बीपी मंडल का खुद विधायक न होना। इसका तोड़ निकाला गया बीपी मंडल को विधान परिषद भेजकर। 29 जनवरी को सीएम सतीश प्रसाद सिंह ने बीपी मंडल को विधान परिषद भेजा और 1 फरवरी 1968 को बिहार में बनी मुख्यमंत्री बीपी मंडल के नेतृत्व में सरकार। सतीश प्रसाद सिंह इस सरकार में मंत्री बने।
कांग्रेस में टूट से 47 दिन ही चल पाई बीपी मंडल की सरकार
बीपी मंडल के मंत्रिमंडल को उस दौरान दलबदलुओं के मंत्रालय के तौर पर जाना गया। इसकी वजह यह थी कि उनके मंत्रिमंडल में सभी मंत्री किसी और दल से ही आए थे। इनमें से सबसे ज्यादा दल-बदलु नेता, जो मंत्री बने, वे एसएपी के थे। कुल 36 मंत्रियों में से एसएसपी के 11 पूर्व नेता मंत्री बने। वहीं, महामाया प्रसाद सिन्हा की जन क्रांति दल के 9 दल-बदलु नेता मंत्री बने थे। जनसंघ, भाकपा के भी कुछ पूर्व नेता इस कैबिनेट का हिस्सा रहे।
दल-बदल करने वाले नेताओं के दम पर चल रही यह सरकार महज 47 दिन ही चल पाई। दरअसल, 18 मार्च 1968 को विपक्ष की तरफ से लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग के दौरान कांग्रेस के 16 विधायकों ने व्हिप के खिलाफ जाकर मतदान किया। बताया जाता है कि इसके पीछे थे कांग्रेस के ही दो धड़े। एक पूर्व सीएम केबी सहाय के नेतृत्व वाला गठबंधन, जिसने मंडल का समर्थन किया और दूसरा पूर्व सीएम- बीएन झा के नेतृत्व वाला गुट, जिसने सहाय की पसंद के खिलाफ वोटिंग कर दी। इसी के साथ विपक्ष को मिले 165 वोट और कांग्रेस के समर्थन वाले शोषित दल के पास आए 148 वोट। नतीजतन बीपी मंडल को मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा।
फिर बिहार ने देखा 95 दिन का मुख्यमंत्री
शोषित दल की सरकार गिरने के बाद बिहार में कांग्रेस पर ही संकट खड़ा हो गया। हालांकि, बिनोदानंद झा की राजनीतिक समझ ने कांग्रेस में उनका रास्ता आसान कर दिया। कांग्रेस में बने दो धड़े उन्हीं की वजह से एक बार फिर साथ आए और इस बार कांग्रेस से अलग होकर बने लोकतांत्रिक कांग्रेस दल (एलकेडी) के भोला पासवान शास्त्री को मुख्यमंत्री के तौर पर स्थापित करने के लिए तैयार हो गए। यह भी फैसला हुआ कि दूसरी गैर-कांग्रेसी सरकार के कई नेताओं को अब नई सरकार में मौका दिया जाएगा। 22 मार्च 1968 को आखिरकार भोला पासवान शास्त्री बिहार के मुख्यमंत्री बने। 1967 के चुनाव के बाद से एक साल के अंदर ही वह बिहार के चौथे मुख्यमंत्री बन चुके थे।
लेकिन मंत्रिमंडल में विवादों और अलग-अलग मांगों के चलते कांग्रेस का साथी पार्टियों से जबरदस्त विवाद हुआ। आखिरकार 25 जून 1968 को भोला पासवान शास्त्री ने अपना इस्तीफा दे दिया और इस तरह महज 95 दिन में ही सरकार गिर गई। यह सरकार बिहार का बजट तक पास नहीं कर पाई थी। इसके चलते भोला पासवान ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की और इसके बाद मध्यावधि चुनाव की मांग की। उनका कहना था कि मौजूदा समय में कोई भी सरकार पूरी तरह बहुमत में नहीं है। इसलिए चुनाव कराए जाने जरूरी हैं।
इस लिहाज से देखा जाए तो बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार से लेकर राष्ट्रपति शासन तक काफी उठापटक का दौर रहा। महज 16 महीने के दौरान राज्य में 200 से ज्यादा नेताओं ने दल-बदल किया। इस छोटे से दौर में बिहार ने चार मुख्यमंत्री देखे। इसके बाद बिहार में जून 1968 से फरवरी 1969 तक राष्ट्रपति शासन लगाया गया।
1969: सत्ता में फिर लौटी कांग्रेस, पर स्थिति पहले से भी खराब
बिहार में आठ महीने तक राष्ट्रपति शासन के बाद मध्यावधि चुनाव हुए। हालांकि, एक बार फिर राज्य में बहुमत की सरकार नहीं चुनी गई। कांग्रेस को सबसे ज्यादा 118 सीटें मिलीं, लेकिन यह 1967 की 128 सीटों से कम ही रहीं। दूसरी तरफ संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी को 52 और जनसंघ को 34 सीटें मिलीं। भाकपा को 25 और माकपा को तीन सीटें हासिल हुईं।
इन चुनावों में सिर्फ जनसंघ को फायदा हुआ। हालांकि, सरकार बनी कांग्रेस की, जिसे तब भारतीय क्रांति दल, एचयूआई झारखंड, शोषित दल, जनता पार्टी, स्वतंत्र पार्टी और 6 निर्दलियों का समर्थन मिला। हालांकि, कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद के लिए जंग पहले की तरह ही जारी रही। इस बार एक धड़े ने आगे किया दरोगा प्रसाद राय का नाम। वहीं, दूसरे धड़े ने सरदार हरिहर सिंह को सीएम बनाने का प्रस्ताव रखा। आखिरकार 19 फरवरी 1969 को हरिहर सिंह को बिहार कांग्रेस विधायक दल का नेता चुना गया। उन्होंने डीपी राय को हरा दिया और 21 फरवरी को गवर्नर नित्यानंद कानूनगो के सामने सरकार बनाने का प्रस्ताव पेश कर दिया। 26 फरवरी 1969 को उन्होंने सीएम पद की शपथ ले ली।
हरिहर सिंह की सरकार महज 116 दिन ही चल पाई। पशुपालन विभाग की तरफ से बजट की मांगों को लेकर बढ़ते विरोध के बीच हरिहर सिंह पर दबाव बढ़ने लगा। आखिरकार शोषित दल ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और हरिहर सिंह की सरकार गिर गई। इसी शाम को हरिहर सिंह ने इस्तीफा भी दे दिया।
बिहार ने देखा 12 दिन का मुख्यमंत्री
हरिहर सिंह के सरकार से हटने के बाद एक बार फिर विपक्ष ने सरकार बनाने का दावा पेश किया और लोकतांत्रिक कांग्रेस दल के भोला पासवान शास्त्री को एसएसपी, पीएसपी, भाकपा, जनसंघ, शोषित दल के समर्थन से मुख्यमंत्री चुनाव गया। लेकिन महज नौ दिन बाद ही जनसंघ ने यह कहते हुए समर्थन वापस ले लिया कि किसी भी दल-बदलु को नए कैबिनेट में पद नहीं दिया जाना चाहिए। दरअसल, भोला पासवान ने अपने कैबिनेट में दो पूर्व कांग्रेसियों को भी शामिल करा लिया था। इस लिहाज से भोला पासवान शास्त्री की सरकार बिहार में सबसे छोटी सरकार साबित हुई है। 1 जुलाई 1969 को भोला पासवान मंत्रिमंडल ने इस्तीफा दे दिया।
जब एक कंडक्टर की वजह से एक साल भी नहीं चल पाई सरकार
इसके बाद बिहार में किसी दल के सरकार न बना पाने की वजह से राज्य में 4 जुलाई 1969 को राष्ट्रपति शासन का एलान कर दिया गया। यह वह दौर था, जब कांग्रेस आंतरिक कलह से जूझ रही थी और इसके दो धड़े कांग्रेस-आर (इंदिरा गांधी गुट) और कांग्रेस-ओ (कामराज गुट) के बीच सत्ता की जंग गहराती जा रही थी। आखिरकार कांग्रेस के दो धड़ों- कांग्रेस (ओ) और कांग्रेस (आर) में टूटने का असर बिहार में भी दिखा और यहां पार्टी के 50 विधायक के. कामराज के नेतृत्व वाली कांग्रेस (ओ) और 60 विधायक इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस (आर) का हिस्सा बने।
बिहार में 16 फरवरी 1970 को राष्ट्रपति शासन तब हटा, जब कांग्रेस-रेक्विजिशन यानी कांग्रेस (आर) के नेतृत्व में छह पार्टियों के गठबंधन ने राज्य में सरकार बनाई। इसका नेतृत्व पार्टी नेता दरोगा प्रसाद राय ने किया, जिनका सीएम पद का रास्ता कभी हरिहर सिंह ने रोका था। इस गठबंधन में पीएसपी, भाकपा, एचयूआई झारखंड, शोषित दल और भारतीय क्रांति दल शामिल थे।
पिछली सरकारों की तरह ही इस सरकार को भी गठबंधन रास नहीं आया और 18 दिसंबर 1970 को बिहार विधानसभा में लाए गए अविश्वास प्रस्ताव को डीपी राय हरा नहीं पाए। उनकी सरकार के खिलाफ में पड़े 164 वोट, जबकि पक्ष में आए 146 वोट। इस अविश्वास प्रस्ताव को कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली एसएसपी, जनसंघ, पीएसपी के बागी गुट, जनता पार्टी, कांग्रेस (ओ), स्वतंत्र पार्टी और शोषित दल के बीपी मंडल धड़े ने समर्थन दिया। सत्तासीन गठबंधन में दो धड़ों के बागी हो जाने की वजह से ही दरोगा प्रसाद राय महज 10 महीने ही सरकार चला पाए।
बताया जाता है कि दरोगा प्रसाद राय के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पास होने की वजह एचयूआई झारखंड की नाराजगी भी थी और इसके पीछे वजह थी एक कंडक्टर के निलंबन की घटना। बताया जाता है कि बिहार राजपथ परिवहन के एक आदिवासी कंडक्टर को सेवा से निलंबित कर दिया गया था। जब यह कंडक्टर झारखंड की मुख्य पार्टी के नेता बागुन सुम्ब्रई के पास मदद के लिए पहुंचा, तो उन्होंने सीएम दरोगा प्रसाद से कंडक्टर का निलंबन वापस लेने के लिए कहा। हालांकि, सीएम राय ने जब एक हफ्ते तक प्रतिक्रिया नहीं दी, तो बागुन सुम्ब्रई ने समर्थन वापस लेने का एलान कर दिया। इस तरह अविश्वास प्रस्ताव के दौरान गठबंधन के एक साथी का समर्थन कम होने की वजह से दरोगा प्रसाद राय की सरकार गिर गई।
संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेतृत्व में बन गई संयुक्त विधायक दल की सरकार
इसके बाद राज्यपाल ने 22 दिसंबर 1970 को कर्पूरी ठाकुर की एसएसपी के नेतृत्व वाले संयुक्त विधायक दल (एसवीडी) को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। कर्पूरी ठाकुर ने अपने समर्थन में 169 विधायकों के हस्ताक्षर वाली लिस्ट गवर्नर को सौंपी। इसी दिन 11 सदस्यीय मंत्रिमंडल का कर्पूरी ठाकुर के साथ शपथग्रहण हुआ। इस गठबंधन में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) के साथ पीएसपी का बागी गुट, जनसंघ, कांग्रेस (ओ), जनता पार्टी, भारतीय क्रांति दल और स्वतंत्र पार्टी शामिल हुईं। इसके अलावा एचयूआई झारखंड का एक गुट भी इस गठबंधन का हिस्सा बना। शोषित दल का धड़ा भी सत्तासीन गठबंधन में शामिल हो गया।
हालांकि, 161 दिन बाद ही कर्पूरी ठाकुर को भी मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। बताया जाता है कि 1 जून 1971 को विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव पेश होने से पहले ही कर्पूरी ठाकुर ने राज्यपाल से मिल कर अपना इस्तीफा सौंप दिया था। इसकी वजह थी एसवीडी के दलों में धड़ेबाजी और एक-दूसरे से लड़ाई। खुद एसएसपी में अंदरूनी जंग खुलकर सामने आ गई थीं। यहां तक कि जनसंघ, जिसे मजबूत माना जाता था, उसके तीन विधायक कांग्रेस (आर) में चले गए थे। इतना ही नहीं, एसएसपी के खुद के विधायक कांग्रेस (आर) का हिस्सा बन चुके थे। मंत्रिमंडल के सदस्य भी दल-बदल से अछूते नहीं थे और 30 मई को ही दो मंत्री एसवीडी सरकार से इस्तीफा दे चुके थे।
तीसरी बार मुख्यमंत्री बने भोला पासवान शास्त्री, तीसरी ही बार लगा राष्ट्रपति शासन
कर्पूरी ठाकुर ने इस्तीफा देने के बाद बिहार में मध्यावधि चुनाव कराने की मांग की थी। हालांकि, सरकार गिरने के ठीक बाद कांग्रेस (आर) के बिहार के नेता जयपाल सिंह यादव, भाकपा के विधायक दल के नेता सुनील मुखर्जी और 12 विधायकों वाली प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के नेता हसीबुर रहमान ने साथ आने का फैसला किया। इन तीनों नेताओं ने कांग्रेस के भोला पासवान शास्त्री के नेतृत्व में नई सरकार का दावा पेश किया।
भोला पासवान शास्त्री के नेतृत्व में तीन पार्टी वाले प्रोग्रेसिव विधायक दल (पीवीडी) की सरकार ने 2 जून 1971 को शपथ ली। इस गठबंधन में कांग्रेस (आर) के 105 विधायक, भाकपा के 25, पीएसपी के 12 सदस्य शामिल रहे। इसके अलावा कुछ दलों के बागी गुट, जैसे- भारतीय क्रांति दल, झारखंड पार्टी, एचयूआई झारखंड औौर शोषित दल जैसे क्षेत्रीय दल के नेता शामिल थे।
हालांकि, भोला पासवान के नेतृत्व वाले मंत्रालय की हालत भी पिछले गठबंधनों की तरह ही रही। 198 दिन तक शासन करने के बाद पासवान ने 27 दिसंबर 1971 को इस्तीफा दे दिया। भोला पासवान शास्त्री की सरकार गिरने के बाद बिहार में तीसरी बार राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।
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