जानिए देवी-देवताओं की पूजा और परिक्रमा के नियम

जानिए देवी-देवताओं की पूजा और परिक्रमा के नियम

 अपने कई बार मंदिर में या घरों में भी पूजा-पाठ के बाद लोगों को परिक्रमा करते हुए देखा होगा। मगर, कई बार ऐसी स्थिति होती है, जब मंदिर में मूर्ति के बीच परिक्रमा करने की जगह नहीं होती है। इस दौरान सवाल खड़ा होता है कि आखिर परिक्रमा कैसे पूरी की जाए। 

हिंदू धर्म के प्रमुख पुराणों में से एक है नारद पुराण। इसमें बताया गया है कि विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा और परिक्रमा के नियम बताए गए हैं। इसमें बताया गया है कि मूर्तियों की सकारात्मक ऊर्जा उत्तर से दक्षिण की ओर प्रवाहित होती है। इसी वजह से परिक्रमा दाईं तरफ से शुरू की जाती है, इसीलिए इसे प्रदक्षिणा भी कहते हैं। 

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कितनी की जाती है किसकी परिक्रमा

किसी भी मूर्ति की परिक्रमा करते समय उसकी संख्या हमेशा विषम यानी 1, 3, 5, 7, 9, 11, 21 की संख्या में होनी चाहिए। हालांकि, भगवान विष्णु और उनके अवतारों की 4 बार परिक्रमा की जाती है। जानिए विभिन्न देवी देवताओं की परिक्रमा की संख्या कितनी होती है…

सूर्य देव: 7 बार

श्रीगणेश: 3 बार

देवी दुर्गा: 1 बार

हनुमान जी: 3 बार

शिवलिंग: आधी परिक्रमा, जलधारी को पार नहीं किया जाता

शिव और पार्वती: 3 बार

शनिदेव: 7 बार 

इस मंत्र का करना चाहिए उच्चारण

यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च। तानि सवार्णि नश्यन्तु प्रदक्षिणे पदे-पदे।। इस मंत्र का अर्थ यह है कि जाने-अनजाने में किए गए और पूर्वजन्मों के सारे पाप प्रदक्षिणा के साथ-साथ नष्ट हो जाएं। जब आप इस मंत्र का पूरी श्रद्धा के साथ जाप करते हुए मंदिर में प्रदक्षिणा लगाते हैं, तो जाने-अनजाने में हुई गलतियां धीरे-धीरे खत्म होने लगते हैं।

आपके अंदर एक सकारात्मक भाव जागता है। जीवन में आ रही कठिनाइयां दूर होने लगती हैं। एक बार जब ऐसा होना शुरू हो जाता है, तो आप आर्थिक तरक्की की राह पर आगे बढ़ने लगते हैं। आध्यात्मिक रूप से आप जाग्रत हो जाते हैं और भविष्य में किसी तरह के पाप को करने से बच जाते हैं।

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यदि न हो परिक्रमा के लिए जगह…

परिक्रमा किसी भी देवमूर्ति या मंदिर में चारों ओर घूमकर की जाती है। कुछ मंदिरों में मूर्ति की पीठ और दीवार के बीच परिक्रमा के लिए जगह नहीं होती है। ऐसी स्थिति में सवाल पैदा होता है कि प्राण-प्रतिष्ठित मूर्ति की परिक्रमा कैसे की जाए।

इस स्थिति में मूर्ति के सामने ही अपनी जगह पर खड़े होकर दाईं तरफ से बाईं तरफ यानी घड़ी की सुई की दिशा में गोल घूमकर प्रदक्षिणा की जा सकती है। यह प्रदक्षिणा भी वैसा ही फल देती है, जैसा मूर्ति के चारों तरफ घूमने से मिलता है।









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