बीजापुर : घने जंगलों और दुर्गम पहाड़ों के बीच बसा बीजापुर जिला एक बार फिर अपनी जमीनी हकीकत को बयां कर रहा है। जिले के मिरतुर क्षेत्र के कुढ़मेर गांव से एक ऐसी तस्वीर सामने आई है, जो न केवल दिल दहलाती है, बल्कि व्यवस्था की नाकामी को भी उजागर करती है। एक मरीज को इलाज के लिए 15 किलोमीटर तक कावड़ में ढोकर नेलसनार स्वास्थ्य केंद्र लाया गया। पक्की सड़कों और नालों पर पुलों के अभाव ने कावड़ को ही इन ग्रामीणों के लिए एम्बुलेंस बना दिया।
मानसून की बारिश इन जमीनी हालातों को और बदतर कर देती है। हर साल बारिश के मौसम में ऐसी तस्वीरें सामने आती हैं, जो ग्रामीण आदिवासियों की बेबसी को उजागर करती हैं। न सड़कें, न पुल, न ही समय पर एम्बुलेंस—इन सबके अभाव में जिंदगी और मौत के बीच जूझते ये लोग अपनी किस्मत को कोसने को मजबूर हैं।
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हाल ही में एक और मार्मिक दृश्य देखने को मिला, जब स्वास्थ्य विभाग की टीम जान जोखिम में डालकर उफनते नाले को छोटी-सी ढोंगी (नाव) के सहारे पार कर माओग्रस्त गोरगोंडा गांव पहुंची। और अब यह दूसरी तस्वीर—जहां परिजन अपने बीमार को कावड़ पर लादकर, 15 किलोमीटर का कठिन सफर तय कर स्वास्थ्य केंद्र पहुंचे। ये दृश्य सिर्फ दर्दनाक नहीं, बल्कि उन दावों पर सवाल उठाते हैं, जो सरकारें विकास के नाम पर करती हैं।
जंगलों के बीच बसे इन आदिवासी गांवों में रहने वाले लोग आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। एक ओर शासन इन क्षेत्रों के विकास के लिए अरबों-खरबों रुपये खर्च करने का दावा करता है, तो दूसरी ओर ऐसी तस्वीरें मन को झकझोर देती हैं। आखिर कब तक ये मासूम आदिवासी अपनी जिंदगी को कावड़ पर ढोते रहेंगे? कब तक सड़कों, पुलों और स्वास्थ्य सुविधाओं का इंतजार करते रहेंगे?
यह कहानी सिर्फ कुढ़मेर गांव की नहीं, बल्कि बीजापुर के उन तमाम गांवों की है, जहां जिंदगी हर कदम पर इम्तिहान लेती है। ये तस्वीरें न केवल व्यवस्था से सवाल पूछती हैं, बल्कि हमें भी सोचने पर मजबूर करती हैं—क्या हमारा विकास सिर्फ कागजों तक सीमित है? क्या इन जंगलों में बस्ती जिंदगियों का दर्द कभी सुना जाएगा?



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