जगदलपुर : आदिवासी संस्कृति की पहचान मानी जाने वाली बस्तर की पारंपरिक काष्ठ शिल्प कला अब अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। कभी अपनी खूबसूरती और विशिष्टता से देश-विदेश में पहचान बनाने वाली यह कला इस मशीनी युग की चकाचौंध में अपनी चमक खो रही है।
बढ़ती महंगाई में यहां के शिल्पकारों को न तो कला का उचित मूल्य मिल पा रहा है और न ही नई पीढ़ी इस परंपरा को अपनाने आगे आ रही हैं। यही वजह है कि अब इस कला से जुड़े दुकानदार अब अन्य व्यवसाय की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
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बस्तर के शिल्पकार मनीष ठाकुर, चेतन ठाकुर, रेनू और घासीराम का कहना है कि बस्तर की पारंपरिक वुडन आर्ट, बेलमेटल, लौह शिल्प सहित अन्य कला का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाम है। सरकार यदि इसे उद्योग का दर्जा दे, तो शिल्पकारों को कच्चा माल आसानी से मिलेगा और समर्थन मूल्य में विभागीय खरीदी से उनकी आर्थिक स्थिति भी मजबूत होगी।
शिल्पी रामधार, समलू और पद्म के मुताबिक, जो कला पीढ़ी दर पीढ़ी आदिवासी समाज में चलती आ रही थी, नई पीढ़ी अब इसमें रुचि नहीं दिखा रही है। सरकार को चाहिए कि नए युवाओं को प्रशिक्षण की सुविधा दिलाई जाए और कलाकृति के उचित दाम सुनिश्चित किए जाएं तो इस कला को बचाया जा सकता है। शिल्पी दशरथ का कहना है कि कच्चा माल और मेहनत का सही मूल्य मिलना भी जरूरी है।
बस्तर शिल्प कला के व्यवसायी गौरीकांत मिश्रा बताते हैं कि बढ़ती महंगाई और शिल्पकारों की कमी के चलते दुकानदार अब अपने परंपरागत व्यवसाय को छोड़कर अन्य कामों की ओर रुख कर रहे हैं। सरकार की लापरवाही और ठोस कदमों की कमी भी इस कला के सिमटने की बड़ी वजह है। स्थिति यह हो गई है कि पहले शिल्पकारों को काम ढूंढना पड़ता था, लेकिन अब शिल्पकार ही ढूंढने मुश्किल हो गए हैं। कला का भविष्य बचाने के लिए सरकार को नए शिल्पियों को तैयार करने और मौजूदा शिल्पकारों को सहारा देने की ठोस पहल करनी होगी।



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