पत्रकार उमेश कुमार राजपूत हत्याकांड—14 वर्ष बाद भी न्याय अधूरा, सीबीआई जांच पर उठ रहे सवाल

पत्रकार उमेश कुमार राजपूत हत्याकांड—14 वर्ष बाद भी न्याय अधूरा, सीबीआई जांच पर उठ रहे सवाल

परमेश्वर राजपूत,गरियाबंद :  छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के छुरा नगर में 23 जनवरी 2011 को हुई पत्रकार उमेश कुमार राजपूत हत्याकांड की गूंज आज भी शांत नहीं हुई है। घटना को 14 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन आज तक अपराधियों को सजा नहीं मिल सकी है। स्थानीय पत्रकारिता जगत से लेकर आम नागरिकों में इस मामले को लेकर गहरी नाराजगी और निराशा व्याप्त है।

23 जनवरी 2011 की शाम, जब नई दुनिया अखबार में कार्यरत युवा पत्रकार उमेश कुमार राजपूत अपने छुरा स्थित निवास के अंदर बैठे थे, तभी अज्ञात हमलावरों के द्वारा उन्हें गोली मार दी गई थी और मौके पर ही उनकी मौत हो गई। इस नृशंस हत्या ने पूरे प्रदेश में सनसनी फैला दी थी। विरोध में कई नगर भी बंद रहे और पत्रकार संगठनों ने भी धरना प्रदर्शन किया।

पहले स्थानीय पुलिस ने की जांच फिर सीबीआई को सौंपा गया मामला,
घटना के बाद लगभग चार वर्षों तक स्थानीय पुलिस ने जांच की, लेकिन अपराधियों तक पहुंचने में पूरी तरह असफल रही। मामले की गंभीरता और न्याय की मांग को लेकर परिजनों ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। इसके बाद वर्ष 2015 में मामला सीबीआई को सौंपा गया। तब से अब तक यह केस सीबीआई के पास है और वर्तमान में इसकी सुनवाई विशेष सीबीआई न्यायालय रायपुर में चल रही है।

अब तक नहीं मिली न्याय की रोशनी
लंबे समय से चली आ रही जांच और अदालत में लगातार पेशियों के बावजूद अब तक किसी भी आरोपी को सजा नहीं मिल सकी है। जबकि हत्याकांड से जुड़े कई अहम साक्ष्य थाने से गायब मिले हैं जिसकी सुक्ष्म और गहन जांच से इस हत्याकांड का खुलासा हो सकता है। इस स्थिति से परिजनों और पत्रकार संगठनों में गहरा असंतोष है। कई पत्रकार संगठन यह सवाल उठा रहे हैं कि देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई भी आखिर क्यों अब तक इस हत्या की गुत्थी सुलझाने में असफल है?

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क्या हैं जांच में रुकावटें?
सूत्रों के अनुसार, जांच के दौरान कई स्थानीय स्तर पर प्रभावशाली लोगों और राजनीतिक संबंधों के पहलुओं पर भी सवाल उठे थे। हालांकि, अब तक किसी भी राजनेता या प्रभावशाली व्यक्ति के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं की गई है। यह स्थिति लोगों के मन में शंका पैदा करती है कि कहीं न कहीं प्रभावशाली हाथ इस हत्याकांड के पीछे हो सकते हैं, जिनके चलते न्याय की प्रक्रिया वर्षों से लटकी हुई है।
एक तरफ सरकार सुशासन की दुहाई देती है लेकिन आज भी कई पिड़ित परिवार न्याय की आस में कई वर्षों से न्यायालय के चक्कर लगाने मजबूर हैं किसानों को अपनी ही जमीनों को पाने के लिए वर्षों से तहसील और न्यायालय के चक्कर लगाने मजबूर हैं एक तरफ देश के गृहमंत्री 2026 तक देश को नक्सल मुक्त की डेडलाईन की घोषणा कर चुके हैं। लेकिन नक्सलवाद की ऊपज का मुख्य कारण मानें तो शासन की योजनाएं लोगों तक नहीं पहुंच पाना और लोगों को समय पर न्याय नहीं मिल पाना है। सरकार और प्रशासन को चाहिए कि नक्सल वाद के खात्मे के साथ लोगों को शासन की योजनाएं से जोड़ना और लोगों को समय सीमा पर न्याय दिलाना ही नक्सलवाद के खात्मे को जड़ से खत्म करने में सहायक हो सकता है।

परिजनों की गुहार-

स्वर्गीय उमेश राजपूत के परिजनों ने एक बार फिर सरकार और न्यायपालिका से मांग की है कि इस मामले की सुनवाई में तेजी लाई जाए और दोषियों को सख्त से सख्त सजा दी जाए, ताकि पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर एक मजबूत संदेश समाज में जा सके।

पत्रकार सुरक्षा पर बड़ा सवाल?

यह मामला सिर्फ एक व्यक्ति की हत्या का नहीं, बल्कि पत्रकार सुरक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े गंभीर प्रश्नों को भी उजागर करता है। जब एक पत्रकार, जो समाज के सच को सामने लाने का कार्य करता है, खुद असुरक्षित हो जाए, तो लोकतंत्र की नींव हिल जाती है। आखिर न्यायालय में पिड़ित परिवारों को कब तक तारीख पे तारीख मिलती रहेगी या समय पर न्याय मिल पायेगा? क्या देर से न्याय अन्याय नहीं है?

 









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