शिमला : 'कभी सूखी रोटियों से पेट भरा, कभी आंसुओं से हौसला जुटाया- पर सपने नहीं टूटने दिए।' यह कहानी है हिमाचल के छोटे से गांव पारसा की मां-बेटी की, जिन्होंने संघर्ष की आग में तपकर इतिहास रच दिया। जब भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने विश्व कप अपने नाम किया तो इस जीत के पीछे शिमला की बेटी रेणुका सिंह ठाकुर और उनकी मां सुनीता ठाकुर का त्याग और जज्बा चमक उठा।
हिमाचल को यह गर्व दिलाया शिमला जिले के रोहड़ू उपमंडल के पारसा गांव निवासी स्टार गेंदबाज रेणुका सिंह ठाकुर ने। रेणुका की सफलता के पीछे उसकी मां सुनीता ठाकुर का सालों का संघर्ष छिपा है। बेटी की सफलता पर जब दैनिक जागरण ने मां सुनीता से बात की तो उनके खुशी के आंसू छलक आए।
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पिता को खो चुकी हैं रेणुका
मां ने बताया कि रेणुका जब तीन साल की थी तो पिता केहर सिंह ठाकुर का वर्ष 1999 में निधन हो गया। पिता बेटी को क्रिकेटर बनाना चाहते थे। इसके बाद उसे जल शक्ति विभाग में दैनिक वेतनभोगी के पद पर करुणामूलक आधार पर नौकरी मिली। महीने में 1500 रुपये मिलते थे यानी दिन के 50 रुपये।
पिता का बेटी को क्रिकेटर बनाने का सपना उसके मन में था, लेकिन इसके प्रशिक्षण का खर्च मेरी कमाई से काफी ज्यादा था। सिर्फ जूते का खर्च ही 15 हजार रुपये था, अन्य खर्चे अलग थे। इनको पूरा करने के लिए उधार लिया और बेटी के सपने को साकार करवाने में जुट गई।
कपड़े की गेंद से बुनी विश्व कप की तकदीर
मां सुनीता ने बताया कि रेणुका जब पांच साल की थी तो गांव में कपड़े की गेंद और लकड़ी के बैट से अपने भाई विनोद और चचेरे भाई-बहनों के साथ के साथ क्रिकेट खेलती थी। इस दौरान रेणुका के चाचा भूपेंद्र ठाकुर ने सबसे पहले उसकी प्रतिभा को पहचाना। जब 13 साल की थी तो चाचा हिमाचल प्रदेश क्रिकेट अकादमी (एचपीसीए) धर्मशाला लेकर आए। आज रेणुका भारतीय महिला क्रिकेट टीम के गेंदबाजी क्रम की प्रमुख कड़ी है। रविवार को हुए विश्व कप फाइनल में भी उसने शानदार गेंदबाजी का प्रदर्शन किया।


