लेखक परमेश्वर राजपूत, गरियाबंद : देश की लोकतंत्र व्यवस्था तीन स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—पर टिकी हुई है। इनमें से न्यायपालिका वह स्तंभ है जिस पर आम नागरिक सबसे अधिक भरोसा करता है, क्योंकि यही वह स्थान है जहां अंतिम उम्मीद के रूप में न्याय मिलने की आशा की जाती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से जांच एजेंसियों और न्यायपालिका, दोनों पर लगातार उठते सवालों ने नागरिकों के भरोसे को झकझोरकर रख दिया है।

ताजा घटनाओं में कुछ जजों पर ‘घूस लेने’ के आरोप सामने आने से न्यायिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर गंभीर धब्बा लगा है। यह सिर्फ किसी व्यक्ति या संस्था का मुद्दा नहीं है, बल्कि पूरे लोकतंत्र की आत्मा पर सीधा प्रहार है। जब न्याय का संरक्षक ही सवालों के घेरे में आए, तब यह चिंता और भी गहरी हो जाती है कि आम लोग न्याय के लिए आखिर कहां जाएँ? और भगवान स्वरूप समझे जाने वाले जज ही जब ग़लत करे तो आखिर संविधान के अनुसार उन्हें सजा क्यों नहीं मिल पा रहा है?
जांच एजेंसियों पर बढ़ता अविश्वास-
ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स जैसी केंद्रीय एजेंसियां कभी देश की सबसे भरोसेमंद संस्थाओं में शुमार थीं। परंतु राजनीतिक उपयोग, पक्षपात और दुरुपयोग के आरोपों के कारण इन एजेंसियों पर लोगों का भरोसा लगातार कमजोर होता जा रहा है।
जिस एजेंसी को अपराधियों पर कार्यवाही करनी चाहिए, वही यदि सत्ता के प्रभाव में काम करती दिखे, तो स्वाभाविक है कि जनता के मन में शंका जन्म लेगी। इससे कानून का भय खत्म होने लगता है और अपराध व भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। आज इन जांच एजेंसियों के पास कई ऐसे मामले पेंडिंग हैं जो 15 से 25 सालों तक पेंडिंग पड़े हैं।
जब न्यायपालिका भी विवादों में घिरने लगे-
न्यायपालिका पर भ्रष्टाचार के आरोप कोई नई बात नहीं, पर जब उच्च अदालतों तक के कुछ जजों पर रिश्वत लेने या दबाव में फैसले सुनाने जैसे आरोप लगते हैं, तो हालात और गंभीर प्रतीत होते हैं।
देश में हजारों मामलों में वर्षों तक फैसले लंबित रहना, न्याय प्रक्रिया की धीमी रफ्तार और अब भ्रष्टाचार के आरोप—ये सभी संकेत देते हैं कि लोगों का धैर्य टूट रहा है।
न्यायपालिका को जनता की नज़र में निष्पक्ष, पारदर्शी और अडिग रहना ही होगा, क्योंकि यदि न्याय का विश्वास डगमगा गया तो लोगों के अंदर असुरक्षा और निराशा बढ़ना तय है।
लोग आखिर जाएँ तो जाएँ कहाँ?
सवाल यह है कि लोकतंत्र में जब न्याय का अंतिम आधार ही संदिग्ध हो जाए, तो आम नागरिक की पीड़ा किसके पास सुनी जाएगी?
पुलिस पर पहले ही विश्वास कम था। जांच एजेंसियां राजनीतिक प्रभाव में आती दिख रही हैं। अब अदालतों पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं। ऐसे में गरीब, किसान, मजदूर, महिलाएँ, पीड़ित और शोषित लोग न्याय मिलने की आशा कहाँ लेकर जाएँ? जब लोगों को पुलिस, प्रशासन, सरकार और अदालतों से न्याय नहीं मिल पायेगा तो लोगों को अपनी रक्षा अपना न्याय क्या खुद अपने तरीके से करना मजबूरी हो जायेगा? यह सबसे बड़ा सवाल है।
समाधान क्या है?
1. न्यायपालिका की अंदरूनी पारदर्शी जांच व्यवस्था मजबूत हो – जजों के खिलाफ शिकायतों की निष्पक्ष समीक्षा हो, और कार्रवाई भी सार्वजनिक हो।
2. जांच एजेंसियों को राजनीतिक दखल से मुक्त किया जाए – इन एजेंसियों की नियुक्ति और संचालन स्वतंत्र हो।
3. न्यायिक सुधार जरूरी हैं – लंबित मामलों की संख्या घटाने, तकनीक अपनाने, और न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया में तेजी लाने की जरूरत है।
4. जनता की भागीदारी और जागरूकता बढ़े – न्याय प्रणाली पर निगरानी और जवाबदेही सुनिश्चित करने में नागरिक समाज की बड़ी भूमिका हो सकती है।
5. कानून का समान रूप से पालन – चाहे नेता हो, उद्योगपति हो, अधिकारी हो या आम नागरिक—सबके लिए कानून एक समान हो।
निष्कर्ष-
लोकतंत्र में न्याय सिर्फ दिया ही नहीं जाता, बल्कि दिखना भी चाहिए कि न्याय हो रहा है।
यदि जनता का विश्वास टूट गया, तो लोकतंत्र केवल एक ढांचा बनकर रह जाएगा। इसलिए समय की मांग है कि न्यायपालिका और जांच एजेंसियां अपने घर की सफाई स्वयं करें, अपनी गरिमा और विश्वसनीयता को बचाएँ।
क्योंकि न्याय ही लोकतंत्र की रीढ़ है—और रीढ़ कमजोर हुई तो पूरा ढांचा गिरने में देर नहीं लगेगी।



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