जगदलपुर : समाज कल्याण विभाग द्वारा संचालित आशीर्वाद विक्षिप्त महिला पुनर्वास केंद्र चिड़ईपदर में रह रही लिशा मौर्य (24 वर्ष) की आंखों की रोशनी अब शायद ही लौटेगी। मेडिकल कॉलेज में दो महीने पहले उसकी दोनों आंखों का ऑपरेशन कराया गया लेकिन रोशनी नहीं लौटी। लिशा के लिए सुखद बात है कि वह मानसिक दिव्यांगता को मात देने की ओर धीरे-धीरे बढ़ रही है। उसका नियमित उपचार स्वर्गीय बलीराम कश्यप स्मृति मेडिकल कॉलेज में मानसिक रोग विभाग की प्रमुख डॉ वत्सला की देखरेख में चल रहा है।
लगभग 17 महीने पहले अगस्त 2024 में जब वह पुनर्वास केंद्र में आई थी, तब लगभग 90 प्रतिशत तक मानसिक दिव्यांगता से पीड़ित थी लेकिन उसके स्वास्थ्य में अब पहले की अपेक्षा काफी सुधार है। चिकित्सकों को विश्वास है कि एक समय आएगा जब वह मानसिक दिव्यांगता से उबर जाएगी। लिशा केंद्र में धीरे-धीरे अन्य सदस्यों और स्टाफ से घुल मिल गई है। लिशा की कहानी किसी फिल्म जैसी है। जिला मुख्यालय से 24 किलोमीटर दूर ब्लाक मुख्यालय बकावंड के आवासपारा की रहने वाली आदिवासी परिवार की लिशा अपने माता-पिता की इकलौती संतान है।
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पिता ने लिशा के जन्म के बाद ही मां-बेटी को छोड़कर चला गया था। तीन वर्ष पहले मां भी चल बसी। नाना रतीराम ने जैसे-तैसे परवरिश की वहीं एक दिन ऐसा थी आया, जब लिशा को एक कच्चे मकान के एक कमरे में बंद कर दिया। उसे नाना दोनों समय भोजन दे देता था। वह कितने साल एक अंधेरे कमरे में बंद रही इसे लेकर अलग-अलग चर्चाएं हैं।
कमरे में न लाइट भी नहीं थी। पास पड़ोस के लोगों में कोई दो तो कोई तीन से पांच साल बताता है। समाज कल्याण विभाग की उप संचालक सुचित्रा लकरा जिन्होंने लिशा को नरकीय जीवन से बाहर लाकर महिला पुनर्वास केंद्र पहुंचाया, उनका कहना है कि उसके स्वजन और आसपास के अन्य लोगों से चर्चा में सामने आए तथ्यों पर भरोसा करें तो यह अवधि तीन से चार वर्ष हो सकती है।
नाना ने प्रशासन से मांगी थी लिशा के लिए सहायता
लिशा को लेकर अलग-अलग कहानियां सामने आई थी। समाज कल्याण विभाग की उप संचालक से चर्चा करने पर उन्होंने नईदुनिया को बताया कि लिशा के नाना रतीराम ने स्वयं कलेक्ट्रेट आकर बताया था कि उसकी नातिन को एक कमरे में बंद रखा गया है क्योंकि उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। उसका कहना था कि वह बुजुर्ग हो गया है और उसके जीवन का ठिकाना नहीं है इसलिए वह चाहता है कि लिशा को प्रशासन किसी सुरक्षित जगह पर पहुंचा दे। जिसके बाद उप संचालक टीम गठित कर आवासपारा बकावंड पहुंची थी और लिशा को लेकर पुनर्वास केंद्र पहुंचाया था।
सावित्री लकरा बताती हैं कि उनके पास उपलब्ध रिकॉर्ड के अनुसार लिशा का जन्म एक जनवरी 2002 को हुआ था। बचपन में वह स्वस्थ थी और स्कूल भी जाती थी फिर एक समय ऐसा आया कि उसने स्कूल जाना बंद कर दिया। मानसिक अवसाद में चली गई। अभी वह लगभग 24 वर्ष की है। इस घटना के कुछ माह बाद इस वर्ष जुलाई में रतीराम का भी निधन हो गया। कमरे में क्यों बंद रखा गया था? मानसिक अवसाद में क्यों गई? आदि प्रश्नों को लेकर समाज कल्याण विभाग भी पूरी जानकारी एकत्र नही कर पाया है।
सुधर रही सेहत
आशीर्वाद विक्षिप्त महिला पुनर्वास केंद्र की प्रभारी ट्रेसी फ्लावर ने नईदुनिया को बताया कि लिशा की आंखों का ऑपरेशन दो माह पहले कराया गया था लेकिन रोशनी नही लौटी। मानसिक दिव्यांगता की स्थिति से जरूर वह धीरे-धीरे बाहर आ रही है। उसका स्वास्थ्य भी पहले से काफी बेहतर है।

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