पांडवों और कौरवों के बीच हुए द्यूतक्रीड़ा यानी चौसर के खेल ने अंत में महाभारत जैसे एक भीषण युद्ध का रूप ले लिया। इस युद्ध के दौरान ऐसे कई दाव-पेच चले गए, जो आज भी स्मरणीय हैं। अश्वत्थामा भी महाभारत ग्रंथ के महत्वपूर्ण पात्रों में से एक रहा है, जिसे अमरता किसी वरदान के रूप में नहीं बल्कि एक श्राप के रूप में मिली है। चलिए जानते हैं इसके पीछे का कारण।
अश्वत्थामा ने इस तरह लिया बदला
महाभारत की कथा के अनुसार, अश्वत्थामा ने युद्ध समाप्त होने के बाद अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए पांडवों के शिविर में आग लगा दी, जिससे पांडव और द्रौपदी के पांचों पुत्र मारे गए। अपने पुत्रों की मृत्यु की खबर जानने के बाद द्रौपदी बहुत दुखी हुई। लेकिन इस असहनीय दुख में भी उसने अपना विवेक नहीं खोया।
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तब अर्जुन ने यह प्रतिज्ञा ली कि वह अश्वत्थामा को पकड़कर उसे दंड देगा। अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार, अश्वत्थामा को पराजित कर बंदी बना लिया और उसे द्रौपदी के समक्ष प्रस्तुत किया। तब अर्जुन ने कहा कि पांचाली, अब तुम ही इसका निर्णय तुम करो कि इसे क्या दंड दिया जाए?
द्रौपदी ने दिया ये जवाब
द्रौपदी ने लज्जा से सिर नीचे झुलाए और बंधे हुए अश्वत्थामा की ओर देखा और कहा कि यह गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र हैं। जिस प्रकार पुत्र-शोक मुझे सहना पड़ रहा है, मैं नहीं चाहती कि अश्वत्थामा की माता को भी वही दुख सहना पड़े। किसी भी माता को इस तरह की पीड़ा देना उचित नहीं है। इसके साथ ही गुरु-पुत्र का वध करना उचित नहीं है।
द्रौपदी की यह बात सुनकर सभी को आश्चर्य हुआ। भगवान श्रीकृष्ण भी द्रौपदी के इस निर्णय से प्रसन्न हुए, क्योंकि यह क्रोध पर विवेक की विजय थी। यह इसके बाद अश्वत्थामा के इस पाप के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने उनके मस्तक की मणि ले ली और उसे कलियुग के अंत तक माथे के घाव के साथ पृथ्वी पर भटकने का श्राप दिया।

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