न्याय की आस में आज भी लाखों लोग इंतजार में,देर से न्याय भी अन्याय नहीं? ऐसी न्याय व्यवस्था का जिम्मेदार कौन?आखिर कब होगा सुधार?

न्याय की आस में आज भी लाखों लोग इंतजार में,देर से न्याय भी अन्याय नहीं? ऐसी न्याय व्यवस्था का जिम्मेदार कौन?आखिर कब होगा सुधार?

परमेश्वर राजपूत, गरियाबंद : लोकतंत्र में न्याय पालिका एक प्रमुख स्तंभ माना जाता है। चुंकि लोगों को विभागीय स्तर एवं प्रशासनिक व सरकार की ओर से न्याय नहीं मिल पाने पर या उस न्याय से संतुष्ट नहीं होने पर न्यायपालिका की शरण में जाते हैं। लेकिन न्याय पालिका में भी आज करोड़ों मामले लंबित हैं और लोग न्याय की आस में न्यायालय के चक्कर लगाने मजबूर हैं। वहीं कई मामलों में आज पंद्रह,बीस, पच्चीस सालों से लोग न्यायालय की शरण में हैं लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिल पा रहा है। वहीं कई मामलों में याचिकाकर्ता की मृत्यु तक हो जाती तब उसको फैसला मिलता है ऐसे अनगिनत मामले हैं, क्या ऐसे न्याय का उस पीड़ित के लिए कोई औचित्य है?

  साधारण हम राजस्व के जमीन संबंधित मामलों की बात करें तो लोगों को अपनी ही जमीन को पाने में कई वर्षों तक राजस्व विभाग के चक्कर लगाने पड़ते हैं। कुछ मामलों की बात करें तो बंदोबस्त त्रुटि के चलते उनके जमीन का नंबर गलत हो गया है या फिर रकबे व नक्शे गलत हो गये हैं जिसे सुधरवाने के लिए कृषक एक वकील लगाकर तहसील और अनुविभागीय कार्यालय में आवेदन लगाकर वकील का फीस देकर कई वर्षों से घुमने मजबूर हैं। क्या ये बंदोबस्त की त्रुटि में उस किसान की ग़लती है? क्या किसान को पैसे खर्च कर वकील लगाकर न्यायालय के चक्कर लगाना चाहिए? या फिर सरकार के अधिकारी कर्मचारी की गलतियों पर उन्हें चक्कर लगाना चाहिए यह बड़ा सवाल है?

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 कई हत्या व बालात्कार जैसे मामलों में आज भी पिछले पंद्रह से पच्चीस वर्षों से लोग न्यायालय में भटकने मजबूर हैं और आज भी न्याय की आस में इंतजाररत हैं क्या उस पिड़ित को अपने ही परिजन की जान जाने के बाद एक वकील को फीस देकर पच्चीस वर्ष तक न्याय पाने न्यायपालिका का चक्कर लगाना सही लोकतांत्रिक व्यवस्था है? या सरकार और प्रशासन की भी कुछ जिम्मेदारी होनी चाहिए?
 कुछ परिवारों के बीच से ये मामले वहीं दफ़न हो जाते हैं क्योंकि न्याय तो उसे भी चाहिए लेकिन उनके पास वकील को देने और कोर्ट-कचहरी आने जाने को पैसे नहीं होते एक तरफ़ परिवार की जीवन यापन की जिम्मेदारी तो दुसरी तरफ न्याय पाने के लिए न्यायालय की दौड़ की जिम्मेदारी तो मजबूरी में वे अपने जिवित परिवार के जीवन यापन की जिम्मेदारी को चुनना उनकी मजबूरी हो जाती है।एक तरफ प्रभावशील लोगों के लिए सुनवाई के लिए आधी रात को न्यायालय खुल जाती है तो बड़े प्रभावशाली लोगों को खड़े खड़े जमानत मिल जाती है तो वहीं एक तरफ निम्न तबके के लोग कई वर्षों से जेल में जमानत की आस और इंतजार में बीताते हैं। सभी के लिए एक कानुन की दुहाई तो सरकार देती है पर देखने पर वास्तविकता कुछ और ही बयां करती है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसमें कैसे सुधार हो यह एक बड़ा सवाल है? जिससे कि लोगों को दर बदर भटकना न पड़े गरीब तबके के लोगों को भी त्वरित न्याय मिले, किसानों और मजदूरों को न्यायपालिका का चक्कर लगाना न पड़े और सभी के लिए समान कानून हो और पिड़ितों को समय पर न्याय मिल सके। ऐसी व्यवस्था सरकार और प्रशासन कब तक कर पायेगी यह एक बड़ा गंभीर और सोचनीय विषय प्रतीत होता है। आखिर कब होगा इसमें सुधार जिससे आम लोगों त्वरित न्याय मिल सके?

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