पाकिस्तान के निर्माण के बाद भी भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या खत्म होने की संभावना को डॉक्टर बी.आर. आंबेडकर ने खारिज किया था. लेकिन उन्होंने सवाल किया था कि क्या इसी के चलते हिंदुओं को पाकिस्तान के लिए मना कर देना चाहिए?उनकी सलाह थी कि हिंदुओं को जल्दबाजी में ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पूर्व पाकिस्तान बनने के प्रभावों पर विचार करना चाहिए.
उन्होंने लिखा,”मुझे तो लगता है कि पाकिस्तान बनने से इस समस्या के अनुपात में काफी कमी आ सकती है, क्योंकि इससे भारत में मुस्लिम आबादी का महत्व घट जाता है. यह सोचना हिंदुओं का काम है कि महज अधूरी सफलता के कारण ऐसे प्रस्ताव को छोड़ दिया जाए या फिर ज्यादा नुकसान के मुकाबले कुछ फायदा बेहतर नहीं ?”
अपनी बहुचर्चित किताब “पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन” में आजादी के पूर्व मुसलमानों के लिए अलग देश पाकिस्तान के निर्माण की जोर पकड़ती मांग के बीच आंबेडकर ने विभाजन और साम्प्रदायिकता की समस्या की गहरी पड़ताल की थी. आंबेडकर जयंती के मौके पर पढ़िए उनकी इसी किताब के हवाले से पाकिस्तान और साम्प्रदायिकता के सवालों पर उनके विचार…
सिर्फ राजनीतिक एकता काफी नहीं
आंबेडकर ने मुस्लिमों की राजनीतिक मांगों को मान लिए जाने से हिंदुओं-मुस्लिमों के बीच की दूरियां पाटने के लिए नाकाफी माना था. उन्होंने लिखा कि कुछ लोगों के विचार में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच राजनीतिक एकता पर्याप्त है. हालांकि मेरे विचार में यह सबसे भ्रामक बात है. इस विचार के लोग सोचते हैं कि अंग्रेजों से औपनिवेशिक स्वराज या पूर्ण स्वराज की मांग करते समय मुसलमानों को साथ मिला लेना चाहिए. लेकिन यह बहुत संकुचित दृष्टिकोण है. वे किस भावना से काम करेंगे? क्या वे ऐसे दो अनजान व्यक्तियों की तरह काम करेंगे जिन्हें अनिच्छापूर्वक साथ बांध दिया गया है? अगर उन्हें सच्ची बंधुत्व भावना से काम करना है तो उसके लिए केवल राजनीतिक एकता नहीं बल्कि जरूरत है हृदय व सच्चे अंतःकरण के मिलन की या दूसरे शब्दों में सामाजिक एकता की.”
हिंदू-मुस्लिम एकता की मृगतृष्णा
आंबेडकर सवाल करते हैं कि क्या यह एकता हासिल हो सकी है? क्या उसके लिए प्रयास किए गए? या फिर कोई प्रयत्न बाकी रह गया है? उत्तर में वे लिखते हैं,” पिछले तीस वर्षों का इतिहास दर्शाता है कि हिंदू-मुस्लिम एकता प्राप्त नहीं हुई है. इसके विपरीत उनमें बड़ा पेंच है.एकता के लिए लगातार और निष्ठापूर्वक प्रयत्न किए गए हैं और अब कुछ करने को शेष नहीं है, सिवाय इसके कि एक पार्टी दूसरे के सामने खुद समर्पण कर दे. यदि कोई व्यक्ति आशावादी नहीं है और उसका आशावादी होना न्यायसंगत न हो और यह कहे कि हिंदू-मुस्लिम एकता एक मृगतृष्णा की तरह है और एकता के विचार को छोड़ देना चाहिए, तो कोई भी उसे निराशावादी या अधीर आशावादी कहने का साहस नहीं कर सकता. यह हिंदुओं पर निर्भर करता है कि तमाम दुर्योगपूर्ण प्रयत्नों के बावजूद वे अभी भी एकता की कोशिश करेंगे या इस कोशिश को छोड़कर एकता का कोई और आधार तलाशेंगे.”
हिंदू-मुस्लिम समस्या चिरस्थायी
आंबेडकर का कहना था कि हमें यह बेबाक स्वीकार कर लेना चाहिए कि हिंदुओं और मुसलमानों को एक करने के लिए किए गए यथासंभव सभी प्रयास निष्फल सिद्ध हुए हैं. फिर क्या वे आपसे में लड़ते रहेंगे या फिर प्रेम अथवा सहयोग से साथ रह सकेंगे? आंबेडकर खुद को आशान्वित नहीं पाते.
उन्होंने साफ लिखा, “अतीत का अनुभव तो यही है कि उनमें सामंजस्य नहीं हो सकता. अपनी विराट असमानताओं एवं भेदभावों के चलते वे एक राष्ट्र के रूप में नहीं रह सकते. इन आपसी भिन्नताओं एवं मतभेदों के कारण अलग-अलग रहने पर भी कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि ये कारण उन्हें युद्ध की स्थिति में बनाए रखते हैं. यह मतभेद स्थायी हैं और हिंदू-मुस्लिम समस्या चिरस्थायी है. इस समस्या का यह सोचकर निदान करने की कोशिश एक निष्फल प्रयास है कि हिंदू और मुसलमान एक हैं और यदि अभी एक नहीं भी हैं , तो बाद में एक हो जायेंगे! “
पाकिस्तान नहीं निदान
क्या पाकिस्तान बनने से साम्प्रदायिकता की समस्या सुलझ जाएगी? आंबेडकर इसे जरूरी सवाल बताते हुए विचार का सुझाव देते हैं. जवाब में कहते हैं, ” यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि पाकिस्तान बनने के उपरांत भी हिंदुस्तान साम्प्रदायिक समस्या से मुक्त नहीं हो जाएगा. सीमाओं का निर्धारण करके पाकिस्तान को तो एक सजातीय देश बनाया जा सकता है परन्तु हिंदुस्तान तो एक मिश्रित देश ही बना रहेगा.
मुसलमान समूचे देश में छितरे हुए हैं. चाहें किसी भी ढंग से सीमांकन की कोशिश की जाए हिंदुस्तान को सजातीय देश नहीं बनाया जा सकता. हिंदुस्तान को सजातीय देश बनाने का एकमात्र तरीका है कि जनसंख्या की अदला-बदली की जाए. यह अवश्य विचार कर लेना चाहिए कि जब तक ऐसा नहीं किया जाएगा, हिंदुस्तान में बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक की समस्या और यहां की राजनीति में असंगति पहले की तरह बनी रहेगी.
सिर्फ एक टिकाऊ तरीका
आंबेडकर ने हिंदुस्तान में साम्प्रदायिक शांति स्थापित करने का टिकाऊ तरीका आबादी की अदला-बदली को मानते हुए इस दिशा के अन्य प्रयासों को असुरक्षित माना था. आबादी की अदला-बदली के सुझाव के पक्ष में उन्होंने प्रस्तावित पाकिस्तान में बसे 4,78,97,301 और शेष हिन्दुस्तान की मुस्लिम आबादी 1,85,45,463 का हवाला देते हुए लिखा कि जब यूनान, तुर्की और बुल्गारिया जैसे सीमित साधनों वाले छोटे-छोटे देश यह काम पूरा कर सके तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि हिन्दुस्तानी ऐसा नहीं कर सकते.
उन्होंने लिखा, “फिर यहां तो बहुत कम जनता की अदला-बदली की आवश्यकता पड़ेगी और चूंकि कुछ बाधाओं को दूर करना है, इसलिए साम्प्रदायिक शांति स्थापित करने के एक निश्चित उपाय को न अपनाना अत्यंत उपहासास्पद होगा. जनता की अदला – बदली के विचार का उपहास करने वाले लोग यह कतई नहीं समझते कि वे अल्पसंख्यकों की समस्या के कारण उत्पन्न जटिलताओं को समझने में पूरी तरह असमर्थ रहे हैं.”
ये भी पढ़े : मोदी ने दिखाया आईना खोली कांग्रेस के मुस्लिम प्रेम की पोल
Comments