सरकार के जातिगत जनगणना के फैसले से एक तरफ हिंदू जातियों का आकलन तो होगा ही साथ ही पहली बार मुस्लिम समुदाय की जातियों की भी गिनती होगी. अभी तक मुस्लिम समुदाय को एक धार्मिक समूह के रूप में ही गिना जाता रहा है. इसको भी क्रांतिकारी कदम माना जा रहा है. ऐसा इसलिए क्योंकि पहली बार मुस्लिम समुदाय की जातियों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक स्थिति के सही आंकड़ें सामने आएंगे.
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माना जा रहा है कि इससे अभी तक एकमुश्त वोटबैंक माने जाने वाले मुस्लिम समुदाय को लेकर की जाने वाली तुष्टिकरण की सियासत पर लगाम लगेगी. ऐसा इसलिए क्योंकि धार्मिक समूह के बजाय हिंदुओं की तरह इनके जातिगत आधार पर चर्चा होगी. एक धार्मिक समूह के रूप में समझी जाने वाली भावना बिखर जाएगी. ऐसा इसलिए भी क्योंकि जातिगत जनगणना की पूरी धारणा ओबीसी वोटबैंक के इर्द-गिर्द घूमती है. उस आधार पर जब देखेंगे तो पाएंगे कि मुस्लिमों में 85 प्रतिशत ऐसे हैं जो पसमांदा मुस्लिम हैं. पसमांदा मुस्लिम पिछड़े हुए जरूर हैं लेकिन इनको किसी भी प्रकार का सामाजिक, राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिलता. आज तक इनकी जातिगत आधार पर गणना नहीं होने से इनकी आवाज अनसुनी कर दी जाती रही है. लेकिन अब ऐसा नहीं होगा.
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एक बार जब मुस्लिम समुदाय में भी जातिगत जनगणना हो जाएगी तो उन आंकड़ों के आधार पर पसमांदा मुसलमान भी अपने संख्याबल के आधार पर सामाजिक, राजनीतिक प्रतिनिधित्व मांग सकते हैं. इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि पिछले साल असम में हिमंता बिस्व सरमा सरकार ने मुस्लिमों के बीच जातिगत जनगणना कराई थी. इसके आधार पर असम के मूल मुसलमानों को एसटी का दर्जा दिए जाने की घोषणा की गई.
गौरतलब है कि पसमांदा मुस्लिमों की आवाज वक्फ बोर्ड तक में नहीं है. इस वक्त देश में 32 वक्फ बोर्ड हैं जिनमें से एक में भी पसमांदा मुस्लिम नहीं हैं. हालांकि मोदी सरकार ने हालिया वक्त में जो वक्फ संशोधन कानून बनाया उसमें इनको प्रतिनिधित्व देने की घोषणा हुई. नतीजतन इस कानून के तहत वक्फ बोर्ड में पसमांदा समाज के दो लोगों के होने का प्रावधान किया गया.
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