कांग्रेस का बिहार में गिरता ग्राफ,अब वापसी और भी कठिन

कांग्रेस का बिहार में गिरता ग्राफ,अब वापसी और भी कठिन

पटना :  बिहार की राजनीति में कांग्रेस के बारे में अब यह धारणा आम हो चली है कि वह असरहीन पार्टी बनकर रह गई है। उसका राजनीतिक ग्राफ पिछले एक दशक में लगातार नीचे की ओर जाता दिखाई दिया। वोट प्रतिशत हालांकि बढऩे-घटने के बीच झूलते रहे परंतु, सीटों के मामले में पार्टी का प्रदर्शन समय के साथ कमजोर होता गया। 2015, 2020 और 2025 के विधानसभा चुनाव इसके सबसे स्पष्ट उदाहरण हैं, जहां पार्टी को मिले वोटों में मामूली उतार-चढ़ाव तो दिखा, पर सीटों की संख्या लगातार घटती चली गई।

2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 6.7 प्रतिशत वोट मिले थे। उस समय वह महागठबंधन का हिस्सा थी और सीटों के समीकरण में उसे अपेक्षाकृत लाभ मिला। 2015 के चुनाव में कांग्रेस ने 41 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसे 27 सीटों पर जीत भी हासिल हुई। डेढ़ दशक में कांग्रेस का यह सबसे बढ़िया प्रदर्शन रहा।

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2020 के चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़कर 9.48 प्रतिशत तक पहुंचा। यह वृद्धि पार्टी के लिए उत्साहजनक संकेत मानी गई थी, लेकिन सीटों के रूप में इसका लाभ नहीं मिल सका। 2020 में कांग्रेस को गठबंधन ने उसे 70 सीटों पर लडऩे का मौका दिया परंतु चुनावी नतीजों ने उसे निराश किया। पार्टी 19 सीटें ही जीत पाई।

2025 के हालिया विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 8.71 प्रतिशत वोट मिले, जो 2020 की तुलना में थोड़ा कम है। इस बार पार्टी ने 61 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे।

बड़े नेताओं ने झोंकी थी ताकत

पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता जैसे राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे, प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ केंद्रीय नेतृत्व के तमाम दिग्गजों को बिहार में सक्रिय भी किया गया, परंतु पार्टी के चुनावी प्रदर्शन का आलम यह रहा कि 61 सीटों में उसके छह उम्मीदवार ही जीत सके। इस बार का चुनावी नतीजा कांग्रेस के लिए सिर्फ खराब प्रदर्शन नहीं, बल्कि संगठनात्मक कमजोरी और बदलते राजनीतिक जनाधार का संकेत भी माना जा रहा है।

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कांग्रेस के निरंतर कमजोर प्रदर्शन ने राज्य की राजनीति में उसकी भूमिका को सीमित कर दिया है। जहां एक ओर क्षेत्रीय दल जदयू और राजद के के बीच सत्ता की होड़ दिखी तो वहीं कांग्रेस अपने पारंपरिक सामाजिक आधार को पुनर्जीवित करने में संघर्ष करती भी नजर आई।

2025 के नतीजों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कांग्रेस के सामने अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने की चुनौती अब और कठिन हो गई है। पार्टी को न सिर्फ रणनीति, बल्कि संगठन से लेकर नेतृत्व तक हर स्तर पर नए सिरे से शुरुआत करनी होगी, तभी वह बिहार में फिर से प्रभावी राजनीतिक ताकत बन सकती है।









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